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सत्तरसमं अज्झयणं : सत्रहवाँ अध्ययन
पावसमणिज्जं : पापश्रमणीय पापश्रमण : ज्ञानाचार में प्रमादी
१. जे के इमे पव्वइए नियण्ठे धम्मं सुणित्ता विणओववन्ने ।
सुदुल्लहं लहिउं बोहिलाभं विहरेज पच्छा य जहासुहं तु ॥ [१] जो कोई (मुमुक्षु साधक) धर्म-श्रवण कर, अत्यन्त दुर्लभ बोधिलाभ को प्राप्त करके, (पहले तो) विनय (अर्थात्-आचार) से सम्पन्न हो जाता है तथा निर्ग्रन्थधर्म में प्रव्रजित हो जाता है, किन्तु बाद में सुख-सुविधा के अनुसार स्वच्छन्दविहारी हो जाता है।
२. सेजा दढा पाउरणं मे अस्थि उप्पजई भोत्तुं तहेव पाउं ।
जाणामि जं वट्टइ आउसु ! त्ति किं नाम काहामि सुएण भन्ते ॥ __ [२] (आचार्य एवं गुरु के द्वारा शास्त्राध्ययन की प्रेरणा मिलने पर वह दुर्मुख होकर कहता है) आयुष्मन्! गुरुदेव! मुझे रहने को सुरक्षित (दृढ़) वसति (उपाश्रय) मिल गई है, वस्त्र भी मेरे पास है, खाने-पीने को पर्याप्त मिल जाता है तथा (शास्त्र में जीव-अजीव आदि) जो तत्त्व (वर्णित) हैं, (उन्हें) मैं जानता हूँ। भंते ! फिर मैं शास्त्रों का अध्ययन करके क्या करूंगा!
३. जे के इमे पव्वइए निदासीले पगामसो।
भोच्चा पेच्चा सुहं सुवइ पावसमणे त्ति वुच्चई॥ [३] जो कोई प्रव्रजित हो कर अत्यन्त निद्राशील रहता है, (यथेच्छ) खा-पीकर (निश्चिन्त होकर) सुख से सो जाता है, वह 'पापश्रमण' कहलाता है।
४. आयरियउवज्झाएहिं सुयं विणयं च गाहिए।
ते चेव खिंसई बाले पावसमणे त्ति वुच्चई ॥ [४] जिन आचार्य और उपाध्याय से श्रुत (शास्त्रीय ज्ञान या विचार) और विनय (आचार) ग्रहण किया है, उन्हीं आचार्यादि की जो निन्दा करता है, वह विवेकभ्रष्ट (बाल) पापश्रमण कहलाता है।
विवेचन-शास्त्राध्ययन में प्रमादी पापश्रमण के लक्षण : (१) स्वच्छन्दविहारी, (सुखसुविधावादी), (२) धृष्टतापूर्वक कुतर्कयुक्त दुर्वचनी, (३) अतिनिद्राशील, (४) खा-पीकर निश्चिन्त शयनशील, (५) शास्त्रज्ञानदाता का निन्दक और (६) विवेकभ्रष्ट अज्ञानी।
'धम्म' आदि शब्दों की व्याख्या-धम्म-श्रुत-चारित्ररूप धर्म को। विणओववन्ने—विनय अर्थात्-ज्ञान, दर्शन, चारित्र और उपचाररूप विनयाचार से युक्त। पच्छा जहासुहं-प्रव्रज्याग्रहण के पश्चात् जैसे-जैसे विकथा आदि करने से सुख मिलता जाता है, इस कारण सिंहरूप में दीक्षित होकर शृगालवृत्ति से जीता है। दढा–दृढ—मजबूत अर्थात् हवा, धूप, वर्षा आदि उपद्रवों से सुरक्षित । पाउरणं—प्रावरण