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उत्तराध्ययन सूत्र (ताक-ताक पर या दृष्टि गड़ा कर) देखता है और उनके विषय में चिन्तन करता है, उसके ब्रह्मचर्य के विषय में शंका, कांक्षा या विचिकित्सा उत्पन्न होती है अथवा ब्रह्मचर्य का भंग हो जाता है अथवा उन्माद पैदा हो जाता है अथवा दीर्घकालिक रोग और आतंक हो जाता है या वह केवलि-प्ररूपति धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। इसलिए निर्ग्रन्थ स्त्रियों की मनोहर एवं मनोरम इन्द्रियों को न तो देखे और न ही उनका चिन्तन करे।
विवेचन–मनोहर और मनोरम में अन्तर—मनोहर का अर्थ है—चित्ताकर्षक और मनोरम का अर्थ है—चित्ताह्लादक।
__ आलोइत्ता निझाइत्ता—'आलोकन' का यहाँ भावार्थ है—दृष्टि गड़ा कर बार-बार देखना। निर्ध्यान अर्थात् देखने के बाद अतिशयरूप से चिन्तन करना, जैसे-अहो ! इसके नेत्र कितने सुन्दर हैं! अथवा आलोकन का अर्थ है-थोड़ा देखना, निर्ध्यान का अर्थ है-जम कर व्यवस्थित रूप से देखना। ___ इंदियाइं—यहाँ उपलक्षण से सभी अंगोपांगों का, अंगसौष्ठव आदि का ग्रहण कर लेना चाहिए। पंचम ब्रह्मचर्यसमाधिस्थान
___७. नो इत्थीणं कुड्डन्तरंसि वा, दूसन्तरंसि वा, भित्तन्तरंसि वा, कुइयसई वा, रुइयसई वा, गीयसदं वा, हसियसदं वा, थणियसई वा, कन्दियसहं वा, विलवियसदं वा सुणेत्ता हवइ, से निग्गन्थे।
तं कहमिति चे?
आयरियाह-निग्गन्थस्स खलु इत्थीणं कुड्डन्तरंसि वा, दूसन्तरंसि वा, भित्तन्तरंसि वा, कुइयसदं वा, रुइयसई वा, गीयसदं वा, हसियसई वा, थणियसई वा, कन्दियसदं वा, विलवियसदं वा, सुणेमाणस्स बंभयारिस्स बम्भचेरे संका वा, कंखा वा, वितिगिच्छा वा समुप्पजिजा, भेयं वा लभेजा, उम्मायं वा पाउणिजा, दीहकालियं वा रोगायंकं हवेजा, केवलिपन्नत्ताओ वा धम्माओ भंसेजा। तम्हा खलु निग्गन्थे नो इत्थीणं कुड्डन्तरसि वा, दूसन्तरंसि वा, भित्तन्तरंसि वा, कुइयसहं वा, रुइयसदं वा, गीयसदं वा, हसियसदं वा, थणियसदं वा, कन्दियसदं वा, विलवियसई वा सुणेमाणे विहरेजा।
[७] जो मिट्टी की दीवार के अन्तर से, कपड़े के पर्दे के अन्तर से, अथवा पक्की दीवार के अन्तर से स्त्रियों के कूजितशब्द को, रुदितशब्द को, गीत की ध्वनि को, हास्यशब्द को, स्तनित (गर्जन-से) शब्द को, आक्रन्दन अथवा विलाप के शब्द को नहीं सुनता, वह निर्ग्रन्थ है।
[प्र.] ऐसा क्यों?
[उ.J ऐसा पूछने पर आचार्य कहते हैं—जो निर्ग्रन्थ मिट्टी की दीवार के अन्तर से, पर्दे के अन्तर से, अथवा पक्की दीवार के अन्तर, से स्त्रियों के कूजन, रुदन, गीत, हास्य, गर्जन, आक्रन्दन अथवा विलाप के शब्दों को सुनता है, उस ब्रह्मचारी निर्ग्रन्थ को ब्रह्मचर्य के विषय में शंका, कांक्षा या विचिकित्सा उत्पन्न होती है, अथवा उसका ब्रह्मचर्य नष्ट हो जाता है अथवा उन्माद पैदा हो जाता है, अथवा दीर्घकालिक रोग और आतंक हो जाता है, या वह केवलि-प्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। अतः निर्ग्रन्थ मिट्टी की १. (क) बृहवृत्ति, पत्र ४२५ (ख) मिलाइए—दशवैकालिक ८/५७ : चित्तभित्ति' न निज्झाए।'