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सोलहवाँ अध्ययन : ब्रह्मचर्यसमाधिस्थान दीवार के अन्तर से, पर्दे के अन्तर से, अथवा पक्की दीवार के अन्तर से स्त्रियों के कूजन, रुदन, गीत, हास्य, गर्जन, आक्रन्दन या विलाप के शब्द को न सुने।
विवेचनकुड्य और भित्ति के अर्थों में अन्तर-शब्दकोष के अनुसार इन दोनों का अर्थ एक है, किन्तु बृहद्वृत्ति के अनुसार कुड्य का अर्थ मिट्टी से बनी हुई भींत, सुखबोधा के अनुसार पत्थरों की दीवारों
और चूर्णि के अनुसार पक्की ईंटों से बनी भीत है। शान्त्याचार्य और आ. नेमिचन्द्र ने भित्ति का अर्थ पक्की ईंटों से बनी भींत और चूर्णिकार ने केतुक आदि किया है।
कुड्या ( भीत) के ९ प्रकार—अंगविज्जा-भूमिका में कुड्य के ९ प्रकार वर्णित हैं – (१) लीपी हुई भींत, (२) विना लीपी, (३) वस्त्र की भींत, पर्दा, (४) लकड़ी के तख्तों से बनी हुई, (५) अगलबगल में लकड़ी के तख्तों से बनी, (६) घिस कर चिकनी बनाई हुई, (७) चित्रयुक्त दीवार, (८) चटाई से बनी हुई दीवार तथा (९) फूस से बनी हुई आदि।
कूजनादि शब्दों के अर्थ-कूजित-रतिक्रीड़ा शब्द, रुदित—रतिकलहादिकृत शब्द, हसितठहाका मार का हँसने का, कहकहे लगाने का शब्द, स्तनित-अधोवायुनिसर्ग आदि का शब्द, क्रन्दितवियोगिनी का आक्रन्दन। छठा ब्रह्मचर्यसमाधिस्थान
८. नो निग्गन्थे पुव्वरयं, पुव्वकीलियं अणुसरित्ता हवइ, से निग्गन्थे। तं कहमिति चे?
आयरियाह—निग्गन्थस्स खलु पुव्वरयं पुव्वकीलियं अणुसरमाणस्स बम्भयारिस्स बंभचेरे संका वा, कंखा वा, वितिगिच्छा वा समुप्पजिजा, भयं वा लभेजा, उम्मायं वा पाउणिज्जा, दीहकालियं वा रोगायंकं हवेजा, केवलिपन्नत्ताओ वा धम्माओ भंसेजा। तम्हा खलु नो निग्गन्थे पुव्वरयं, पुव्वकीलियं अणुसरेजा।
[८] जो साधु (संयमग्रहण से) पूर्व (गृहस्थावस्था में स्त्री आदि के साथ किये गए) रमण का और पूर्व (गृहवास में स्त्री आदि के साथ की गई) क्रीड़ा का अनुस्मरण नहीं करता, वह निर्ग्रन्थ है।
[प्र.] ऐसा क्यों?
[उ.] इसके उत्तर में आचार्य कहते हैं-जो पूर्व (गृहवास में की गई) रति और क्रीड़ा का अनुस्मरण करता है, उस ब्रह्मचारी निर्ग्रन्थ को ब्रह्मचर्य के विषय में शंका, कांक्षा या विचिकित्सा उत्पन्न होती है, अथवा ब्रह्मचर्य का विनाश हो जाता है, अथवा उन्माद पैदा होता है, अथवा दीर्घकालिक रोग
और आतंक हो जाता है, या वह केवलि-प्रज्ञप्त धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। अतः निर्ग्रन्थ (संयमग्रहण से) पूर्व (गृहवास में) की (गई) रति और क्रीड़ा का अनुस्मरण न करे। १. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ४२५ (ख) सुखबोधा, पत्र २२१
(ग) चूर्णि, पृ. २४२ (घ) अंगविज्जा-भूमिका, पृ ५८-५९ २. बृहद्वृत्ति, पत्र ४२५