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समीक्षात्मक अध्ययन/३३ नवांगी टीकाकार आचार्य अभयदेव ने७३ "अज्ञान" परीषह का क्वचित् श्रुति के रूप में वर्णन किया है। आचार्य उमास्वाति ने७४ 'अचेल' परीषह के स्थान पर 'नाग्न्य' परीषह लिखा है और 'दर्शन' परीषह के स्थान पर 'अदर्शन' परीषह लिखा है। आचार्य नेमिचन्द्र ने७५ 'दर्शन' परीषह के स्थान पर 'सम्यक्त्व' परीषह माना है। दर्शन और सम्यक्त्व इन दोनों में केवल शब्द का अन्तर है, भाव का नहीं।
परीषहों की उत्पत्ति का कारण ज्ञानावरणीय, अन्तराय, मोहनीय और वेदनीय कर्म हैं। ज्ञानावरणीयकर्म प्रज्ञा और अज्ञान परीषहों का, अन्तरायकर्म अलाभ परीषह का, दर्शनमोहनीय अदर्शन परीषह का और चारित्रमोहनीय अचेल, अरति, स्त्री, निषधा, आक्रोश, याचना, सत्कार, इन सात परीषहों का कारण है। वेदनीयकर्म क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, दंश-मशक, शय्या, वध, रोग, तृणस्पर्श और जल्ल, इन ग्यारह परीषहों का कारण है।७६
___ अधिकारी-भेद की दृष्टि से जिसमें सम्पराय अर्थात् लोभ-कषाय की मात्रा कम हो, उस दसवें सूक्ष्मसम्पराय में७७ तथा ग्यारहवें उपशान्तमोह और बारहवें क्षीणमोह गुणस्थान में (१) क्षुधा (२) पिपासा (३) शीत (४) उष्ण (५) दंशमशक (६) चर्या (७) प्रज्ञा (८) अज्ञान (९) अलाभ (१०) शय्या (११) वध (१२) रोग (१३) तृणस्पर्श और (१४) जल्ल, ये चौदह परीषह ही संभव हैं। शेष मोहजन्य आठ परीषह वहाँ मोहोदय का अभाव होने से नहीं हैं। दसवें गुणस्थान में अत्यल्प मोह रहता है। इसलिए प्रस्तुत गुणस्थान में भी मोहजन्य आठ परीषह संभव न होने से केवल चौदह ही होते हैं।
तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में७८ (१) क्षुधा (२) पिपासा (३) शीत (४) उष्ण (५) दंशमशक (६) चर्या (७) वध (८) रोग (९) शय्या (१०) तृणस्पर्श और (११) जल्ल, ये वेदनीयजनित ग्यारह परीषह सम्भव हैं। इन गुणस्थानों में घातीकर्मों का अभाव होने से शेष ११ परीषह नहीं हैं।
यहाँ पर यह स्मरण रखना होगा कि १३ वें और १४ वें गुणस्थानों में परीषहों के विषय में दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदायों के दृष्टिकोण में किंचित् अन्तर है और उसका मूल कारण है-दिगम्बर परम्परा केवली में कवलाहार नहीं मानती है। उसके अभिमतानुसार सर्वज्ञ में क्षुधा आदि ११ परीषह तो हैं, पर मोह का अभाव होने से क्षुधा आदि वेदना रूप न होने के कारण उपचार मात्र से परीषह हैं।७९ उन्होंने दूसरी व्याख्या भी की है। 'न' शब्द का अध्याहार करके यह अर्थ लगाया है-जिनमें वेदनीयकर्म होने पर भी तदाश्रित क्षुधा आदि ११ परीषह मोह के अभाव के कारण बाधा रूप न होने से हैं ही नहीं।
सुत्तनिपात में तथागत बुद्ध ने कहा—मुनि शीत, उष्ण, क्षुधा, पिपासा, वात, आतप, दंश और सरीसृप का सामना कर खड्गविषाण की तरह अकेला विचरण करे। यद्यपि बौद्धसाहित्य में कायक्लेश को किंचित् मात्र भी महत्त्व नहीं दिया गया, किन्तु श्रमण के लिए परीषहसहन करने पर उन्होंने भी बल दिया है।
कितनी ही गाथाओं की तुलना बौद्धग्रन्थ-थेरगाथा, सुत्तनिपात तथा धम्मपद और वैदिकग्रन्थ-महाभारत,
७३. समवायांग २२ ७४. तत्त्वार्थसूत्र ९/९ ७५. प्रवचनसारोद्धार, गाथा-६८६ ७६. भगवतीसूत्र ८-८ ७७. सूक्ष्मसम्परायच्छद्मस्थवीतरागयोश्चतुर्दश। -तत्त्वार्थसूत्र ९/१० ७८. एकादश जिने-तत्त्वार्थसूत्र ९/११ ७९. तत्त्वार्थसूत्र (पं. सुखलाल जी संघवी), पृष्ठ २१६ ८०. सीतं च उण्हं च खुदं पिंपासं वातातपे डंस सिरीसिपे च।
सब्बानिपेतानि अभिसंभवित्वा एको चरे खग्गविसाणकप्पो॥ -सुत्तनिपात, उरगवग्ग ३-१८