SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 33
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -उत्तराध्ययन/३२तुलना कीजिए " मा कासि पापकं कम्म, आवि वा यदि वा रहो। सचे च पापकं कम्म, करिस्ससि करोसि वा॥" -थेरगाथा २४७ परीषह : एक चिन्तन द्वितीय अध्ययन में परिषह-जय के सम्बन्ध में चिन्तन किया गया है। संयमसाधना के पथ पर कदम बढ़ाते समय विविध प्रकार के कष्ट आते हैं, पर साधक उन कष्टों से घबराता नहीं है। वह तो उस झरने की तरह है, जो वज्र चट्टानों को चीर कर आगे बढ़ता है। न उसके मार्ग को पत्थर रोक पाते हैं और न ही गहरे गर्त ही। वह तो अपने लक्ष्य की ओर निरन्तर बढ़ता रहता है। पीछे लौटना उसके जीवन का लक्ष्य नहीं होता। स्वीकृत मार्ग से च्युत न होने के लिये तथा निर्जरा के लिए जो कुछ सहा जाता है, वह 'परीषह' है। ६९ परीषह के अर्थ में उपसर्ग शब्द का भी प्रयोग हुआ है। परीषह का अर्थ केवल शरीर इन्द्रिय, मन को ही कष्ट देना नहीं है, अपितु अहिंसा आदि धर्मों की आराधना व साधना के लिए सुस्थिर बनाना है। आचार्य कुन्दकुन्द ने लिखा है-सुख से भावित ज्ञान दु:ख उत्पन्न होने पर नष्ट हो जाता है, इसलिए योगी को यथाशक्ति अपने आपको दुःख से भावित करना चाहिए। जमीन में वपन किया हुआ बीज तभी अंकुरित होता है, जब उसे जल की शीतलता के साथ सूर्य की ऊष्मा प्राप्त हो, वैसे ही साधना की सफलता के लिए अनुकूलता की शीतलता के साथ प्रतिकूलता की ऊष्मा भी आवश्यक है। परीषह साधक के लिए बाधक नहीं, अपितु उसकी प्रगति का ही कारण है। उत्तराध्ययन७०, समवायांग और तत्त्वार्थसूत्र में परीषह की संख्या २२ बताई है। किन्तु संख्या की दृष्टि समान होने पर भी क्रम की दृष्टि से कुछ अन्तर है। समवायांग में परीषह के बाईस भेद इस प्रकार मिलते हैं१. क्षुधा १२. आक्रोश २. पिपासा १३. वध ३. शीत १४. याचना ४. उष्ण १५. अलाभ ५. दंश-मशक १६. रोग ६. अचेल १७. तृण-स्पर्श ७. अरति १८. जल्ल ८. स्त्री १९. सत्कार-पुरस्कार २०. ज्ञान १०. निषद्या २१. दर्शन ११. शय्या २२. प्रज्ञा उत्तराध्ययन में १९ परीषहों के नाम व क्रम वही है, किन्तु २०, २१ व २२ के नाम में अन्तर है। उत्तराध्ययन में (२०) प्रज्ञा, (२१) अज्ञान और (२२) दर्शन है। ९. चर्या ६९. मार्गाच्यवननिर्जरार्थं परिषोढव्याः परीषहाः। –तत्त्वार्थसूत्र ९/८ ७०. उत्तराध्यनसूत्र, दूसरा अध्ययन ७१. समवायांग, समवाय २२ ७२. तत्वार्थसूत्र-९/८
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy