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- समीक्षात्मक अध्ययन/३१विनय : एक विश्लेषण
प्रस्तुत आगम विषय-विवेचन की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। सूत्र का प्रारम्भ होता है—विनय से। विनय अहंकार-शून्यता है। अहंकार की उपस्थिति में विनय केवल औपचारिक होता है। 'वायजीद' एक सूफी सन्त थे। उनके पास एक व्यक्ति आया। उसने नमस्कार कर निवेदन किया कि कुछ जिज्ञासाएँ हैं। वायजीद ने कहा- पहले झुको! उस व्यक्ति ने कहा—मैंने नमस्कार किया है, क्या आपने नहीं देखा? वायजीद ने मुस्कराते हुए कहा- मैं शरीर को झुकाने की बात नहीं करता। तुम्हारा अहंकार झुका है या नहीं? उसे झुकाओ! विनय और अहंकार में कहीं भी तालमेल नहीं है। अहं के शून्य होने से ही मानसिक, वाचिक और कायिक विनय प्रतिफलित होगा। व्यक्ति का रूपान्तरण होगा। कई बार व्यक्ति बाह्य रूप से नम्र दिखता है, किन्तु अन्दर अहं से अकड़ा रहता है। बिना अहंकार को जीते व्यक्ति विनम्र नहीं हो सकता। विनय का सही अर्थ है—अपने आपको अहं से मुक्त कर देना। जब अहं नष्ट होता है, तब व्यक्ति गुरु के अनुशासन को सुनता है
और जो गुरु कहते हैं, उसे स्वीकार करता है। उनके वचनों की आराधना करता है। अपने मन को आग्रह से मुक्त रखता है। विनीत शिष्य को यह परिबोध होता है कि किस प्रकार बोलना, किस प्रकार बैठना, प्रकार खड़े होना चाहिए? वह प्रत्येक बात पर गहराई से चिन्तन करता है। आज जन-जीवन में अशान्ति और अनुशासनहीनता के काले-कजराले बादल उमड़-घुमड़ कर मंडरा रहे हैं। उसका मूल कारण जीवन के ऊषा काल से ही व्यक्ति में विनय का अभाव होता जाना है और यही अभाव पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय जीवन में शैतान की आंत की तरह बढ़ रहा है, जिससे न परिवार सुखी है, न समाज सुखी है और न राष्ट्र के अधिनायक ही शान्ति में हैं। प्रथम अध्ययन में शान्ति का मूलमंत्र विनय को प्रतिपादित करते हुए उसकी महिमा और गरिमा के सम्बन्ध में विस्तार से निरूपण है।
प्रथम अध्ययन में विनय का विश्लेषण करते हुए जो गाथाएँ दी गई हैं, उनकी तुलना महाभारत, धम्मपद और थेरगाथा में आये हुए पद्यों के साथ की जा सकती है। देखिए
"नापुट्ठो वागरे किंचि, पुट्ठो वा नालियं वए।
कोहं असच्चं कुव्वेज्जा, धारेज्जा, पियमप्पियं ॥" -उत्तरा. १/१४ तुलना कीजिए
" नापृष्टः कस्यचिद् ब्रूयात्, नाप्यन्यायेन पृच्छतः।
ज्ञानवानपि मेधावी, जडवत् समुपाविशेत् ॥" - शान्तिपर्व २८७/३५ "अप्पा चेव दमेयव्वो, अप्पा हु खलु दुद्दमो।
अप्पा दन्तो सुही होइ, अस्सि लोए परत्थ य॥" - उत्तरा. १/१५ तुलना कीजिए
" अत्तनजे तथा कयिरा, यथञ्चमनुसासति(?)।
सुदन्तो वत दम्मेथ, अत्ता हि किर दुद्दमो ॥" -धम्मपद १२/३ " पडिणीयं च बुद्धाणं, वाया अदुव कम्मुणा।
आवी वा जइ वा रहस्से, नेव कुज्जा कयाइ वि॥" - उत्तरा. १/१७