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उत्तराध्ययन / ३०
समवायांग में छत्तीस अपृष्ट-व्याकरणों का कोई भी उल्लेख नहीं है। वहाँ इतना ही सूचन है कि भगवान् महावीर रात्रि में समय पचपन कल्याणफल - विपाक वाले अध्ययनों तथा पचपन पाप-फल- विपाक वाले अध्ययनों का व्याकरण कर परिनिवृत्त हुए।६ छत्तीसवें समवाय में भी जहाँ पर उत्तराध्ययन के छत्तीस अध्ययनों का नाम निर्देश किया है, वहाँ पर भी इस सम्बन्ध में कोई चर्चा नहीं है।
उत्तराध्ययन के अठारहवें अध्ययन की चौवीसवीं गाथा के प्रथम दो चरण वे ही हैं, जो छत्तीसवें अध्ययन की अन्तिम गाथा के हैं। देखिए—
"इइ पाठकरे बुद्धे, नायए परिनिव्वुडे । विज्जाचरणसम्पन्ने, सच्चे सच्चपरक्कमे ॥" "इइ पाठकरे बुद्धे, नायए परिनिष्कुडे । छत्तीसं उत्तरझाए, भवसिद्धीय संगए ॥"
उत्तर. १८/२४
उत्तरा ३६ / २६९
बृहद्वृत्तिकार ने अठारहवें अध्ययन की चौवीसवीं गाथा में पूर्वार्द्ध का जो अर्थ किया है, वही अर्थ
छत्तीसवें अध्ययन की अन्तिम गाथा का किया जाय तो उससे यह फलित छत्तीस अध्ययनों का प्रज्ञापन कर परिनिर्वाण को प्राप्त हुए। वहाँ पर अर्थ है— बुद्ध शीतीभूत ज्ञातपुत्र महावीर ने इस तत्त्व का प्रज्ञापन किया है । ६७
नहीं होता कि ज्ञातपुत्र महावीर अवगततत्त्व, परिनिर्वृत
उत्तराध्ययन का गहराई से अध्ययन करने पर यह स्पष्ट परिज्ञात होता है कि इसमें भगवान् महावीर की वाणी का संगुंफन सम्यक् प्रकार से हुआ है। यह श्रमण भगवान् महावीर का प्रतिनिधित्व करने वाला आगम है। इसमें जीव, अजीव, कर्मवाद, षट् द्रव्य, नव तत्त्व, पार्श्वनाथ और महावीर की परम्परा प्रभृति सभी विषयों का संगम समुचित रूप से प्रतिपादन हुआ है। केवल धर्मकथानुयोग का ही नहीं, अपितु चारों अनुयोगों का मधुर हुआ है अतः यह भगवान् महावीर की वाणी का प्रतिनिधित्व करने वाला आगम है। इसमें वीतरागवानी का विमल प्रवाह प्रवाहित है। इसके अर्थ में प्ररूपक भगवान् महावीर हैं किन्तु सूत्र के रचयिता स्थविर होने से इसे अंगबाह्य आगमों में रखा है। उत्तराध्ययन शब्दतः भगवान् महावीर कि अन्तिम देशना ही है, यह साधिकार तो नहीं कहा जा सकता, क्योंकि कल्पसूत्र में उत्तराध्ययन को अपृष्ट-व्याकरण अर्थात् बिना किसी के पूछे स्वतः कथन किया हुआ शास्त्र बताया है, किन्तु वर्तमान के उत्तराध्ययन में आये हुए केशी- गौतमीय, समयक्त्वपराक्रम अध्ययन जो प्रश्नोत्तर शैली में हैं, वे चिन्तकों को चिन्तन के लिए अवश्य ही प्रेरित करते हैं। केशीगौतमीय अध्ययन में भगवान् महावीर का जिस भक्ति और श्रद्धा के साथ गौरवपूर्ण उल्लेख है, वह भगवान् स्वयं अपने लिए किस प्रकार कह सकते हैं? अतः ऐसा प्रतीत होता है कि उत्तराध्ययन में कुछ अंश स्थविरों ने अपनी ओर से संकलित किया हो और उन प्राचीन और अर्वाचीन अध्ययनों को वीरनिर्वाण की एक सहस्राब्दी के पश्चात् देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण ने संकलन कर उसे एक रूप दिया हो
६६. समवायांग ५५
६७. इत्येवंरूपं 'पाउकरे' त्ति प्रादुरकार्षीत् — प्रकटितवान् 'बुद्ध' अवगततत्त्वः सन् ज्ञात एव ज्ञातकः जगत्प्रतीतः क्षत्रियो वा स चेह प्रस्तावान्महावीर एव, परिनिर्वृतः कषायानलविध्यापनात्समन्ताच्छीतीभूतः । - उत्तराध्ययन बृहद्वृत्ति, पत्र ४४४ ६८. (क) दसवेआलियं तह उत्तरज्झयणाणि की भूमिका ( आचार्य श्री तुलसी) (ख) उत्तराध्ययनसूत्र — उपाध्याय अमरमुनि की भूमिका