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समीक्षात्मक अध्ययन/२९ उत्तराध्ययन में ज्यों की त्यों प्राप्त होती है। अत: यह असंदिग्ध रूप से कहा जा सकता है कि उत्तराध्ययन की विषय-वस्तु प्राचीन है। वीर-निर्वाण की प्रथम शताब्दी में दशवैकालिक सूत्र की रचना हो चुकी थी। उत्तराध्ययन दशवैकालिक के पहले की रचना है, वह आचारांग के पश्चात् पढ़ा जाता था, अत: इसकी संकलना वीरनिर्वाण की प्रथम शताब्दी के पूर्वार्द्ध में ही हो चुकी थी। क्या उत्तराध्ययन भगवान् की अन्तिम वाणी है?
अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि क्या उत्तराध्ययन श्रमण भगवान् महावीर की अन्तिम वाणी है?
उत्तर में निवेदन है कि श्रुतकेवली भद्रबाहुस्वामी ने कल्पसूत्र में लिखा है कि श्रमण भगवान् महावीर कल्याणफलविपाक वाले पचपन अध्ययनों और पाप-फल वाले पचपन अध्ययनों एवं छत्तीस अपृष्ट-व्याकरणों का व्याकरण कर प्रधान नामक अध्ययन का प्ररूपण करते-करते सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो गये।६०
इसी आधार से यह माना जाता है कि छत्तीस अपृष्ट-व्याकरण उत्तराध्ययन के ही छत्तीस अध्ययन हैं। उत्तराध्ययन के छत्तीसवें अध्ययन की अन्तिम गाथा से भी प्रस्तुत कथन की पुष्टि होती है
"इइ पाउकरे बुद्धे नायए परिनिव्वुए।
छत्तीसं उत्तरज्झाए, भवसिद्धीयसंमए॥" जिनदासगणी महत्तर ने इस गाथा का अर्थ इस प्रकार किया है- ज्ञातकुल में उत्पन्न वर्द्धमानस्वामी छत्तीस उत्तराध्ययनों का प्रकाशन या प्रज्ञापन कर परिनिर्वाण को प्राप्त हुए। ६१
शान्त्याचार्य ने अपनी बहत्ति में उत्तराध्ययनचूर्णि का अनुसरण करके भी अपनी ओर से दो बातें और मिलाई हैं। पहली बात यह है कि भगवान् महावीर ने उत्तराध्ययन के कुछ अध्ययन अर्थ रूप में और कुछ अध्ययन सूत्र-रूप में प्ररूपित किये।६२ दूसरी बात उन्होंने परिनिर्वत का वैकल्पिक अर्थ स्वस्थीभूत किया है।६३
नियुक्ति में इस अध्ययनों को जिन-प्रज्ञप्त लिखा है।६४ बृहवृत्ति में जिन शब्दों का अर्थ श्रुतजिन - श्रुतकेवली किया है।६५
नियुक्तिकार का अभिमत है कि छत्तीस अध्ययन श्रुतकेवली प्रभृति स्थविरों द्वारा प्ररूपित हैं। उन्होंने नियुक्ति में इस सम्बन्ध में कोई चर्चा नहीं की है कि यह भगवान् ने अन्तिम देशना के रूप में कहा है। बृहद्वत्तिकार भी इस सम्बन्ध में संदिग्ध हैं। केवल चूर्णिकार ने अपना स्पष्ट मन्तव्य व्यक्त किया है।
६०. कल्पसूत्र १४६, पृष्ठ २१०, देवेन्द्रमुनि सम्पादित ६१. उत्तराध्ययनचूर्णि, पृष्ठ २८१ ६२. उत्तराध्ययनचूर्णि बृहद्वृत्ति, पत्र ७१२ ६३. अथवा पाउकरे त्ति प्रादुरकार्षीत प्रकाशितवान्, शेषं पूर्ववत्, नवरं परिनिर्वृत्तः' क्रोधादिदहनोपशमतः समन्तात्स्वस्थीभूतः।
-बृहवृत्ति, पत्र ७१२ ६४. तम्हा जिणपन्नत्ते, अणंतगमपज्जवेहि संजुत्ते।
अज्झाए जहाजोगं, गुरुप्पसाया अहिज्झिज्जा ।।- उत्तरा. नियुक्ति, गा. ५५९ ६५. तस्माग्जिनैः श्रुतजिनादिभिः प्ररूपिताः। - उत्तराध्ययन बृहद्वृत्ति, पत्र ७१३