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पनरसमं अज्झयणं : पन्द्रहवाँ अध्ययन
सभिक्रदयं : सभिक्षुकम् भिक्षु के लक्षण : ज्ञान-दर्शन-चारित्रात्मक जीवन के रूप में
१. मोणं चरिस्सामि समिच्च धम्मं सहिए उज्जुकडे नियाणछिन्ने।
संथवं जहिज्ज अकामकामे अन्नायएसी परिव्वए जे स भिक्खू॥ [१] 'श्रुत-चारित्ररूप धर्म को अंगीकार कर मौन (-मुनिभाव) का आचरण करूंगा', जो ऐसा संकल्प करता है, जो दूसरे स्थविर साधुओं के साथ रहता है, जिसका अनुष्ठान (-धर्माचरण) ऋजु (सरल-मायारहित) है, जिसने निदानों को विच्छिन्न कर दिया है, जो (पूर्वाश्रम के सम्बन्धियों-मातापिता आदि स्वजनों के) परिचय (संसर्ग) का त्याग करता है, जो कामभोगों की कामना से रहित है, जो अज्ञात कुल (जिसमें अपनी जाति. तप आदि का कोई परिचय नहीं है या परिचय देता नहीं है, उस) में भिक्षा की गवेषणा करता है, जो अप्रतिबद्ध रूप से विहार करता है, वह भिक्षु है।
२. रागोवरयं चरेज लाढे विरए वेयवियाऽऽयरक्खिए।
___ पन्ने अभिभूय सव्वदंसी जे कम्हिंचि न मुच्छिए स भिक्खू॥ [२] जो राग से उपरत है, जो (सदनुष्ठान करने के कारण) प्रधान साधु है, जो (असंयम से) विरत (निवृत्त) है, जो तत्त्व या सिद्धान्त (वेद) का वेत्ता है तथा आत्मरक्षक है, जो प्राज्ञ है, जो राग-द्वेष को पराजित कर सर्व (प्राणिगण को आत्मवत्) देखता है, जो किसी भी सजीव-निर्जीव वस्तु में मूर्च्छित (प्रतिबद्ध) नहीं होता, वह भिक्षु है।
३. अक्कोसवहं विइत्तु धीरे मुणी चरे लाढे निच्चमायगुत्ते।
अव्वग्गमणे असंपहिढे जे कसिणं अहियासए स भिक्खू॥ [३] कठोर वचन और वध (मारपीट) को (अपने पूर्वकृत कर्मों का फल) जान कर जो मुनि धीर (अक्षुब्ध-सम्यक् सहिष्णु) होकर विचरण करता है, जो (संयमाचरण से) प्रशस्त है, जिसने असंयमस्थानों से सदा आत्मा को गुप्त-रक्षित किया है, जिसका मन अव्यग्र (अनाकुल) है, जो हर्षातिरेक से रहित है, जो (परीषह, उपसर्ग आदि) सब कुछ (समभाव से) सहन करता है, वह भिक्षु है।
४. पन्तं सयणासणं भइत्ता सीउण्हं विविहं च दंसमसगं।
अव्वग्गमणे असंपहिढे जे कसिणं अहियासए स भिक्खू॥ [४] जो निकृष्ट से निकृष्ट शयन (शय्या, संस्तारक या वसति-उपाश्रय आदि) तथा आसन (पीठ, पट्टा चौकी आदि) (उपलक्षण से भोजन वस्त्र आदि) का समभाव से सेवन करता है, जो सर्दी-गर्मी तथा डांस-मच्छर आदि के अनुकूल और प्रतिकूल परीषहों में हर्षित और व्यथित (व्यग्रचित्त) नहीं होता, जो सब कुछ सह लेता है, वह भिक्षु है।