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________________ २३२ ५. नो सक्कियमिच्छई न पूयं नो वि य वन्दणगं, कुओ पसंसं? से संजए सुव्वए तवस्सी सहिए आयगवेसए स भिक्खू ॥ [५] जो साधक न तो सत्कार चाहता है, न पूजा ( प्रतिष्ठा) और न वन्दन चाहता है, भला वह किसी से प्रशंसा की अपेक्षा कैसे करेगा? जो संयत है, सुव्रती है, तपस्वी है, जो सम्यग्ज्ञान-क्रिया से युक्त है, जो आत्म- गवेषक (शुद्ध- आत्मस्वरूप का साधक) है, वह भिक्षु है । ६. जेण पुण जहाइ जीवियं मोहं वा कसिणं नियच्छई । नरनारि पजहे सया तवस्सी न य कोऊहलं उवेइ स भिक्खू ॥ [६] जिसकी संगति से संयमी जीवन छूट जाए और सब ओर से पूर्ण मोह ( कषाय- नोकषायादि रूप मोहनीय) से बंध जाए, ऐसे पुरुष या स्त्री की संगति को जो त्याग देता है, जो सदा तपस्वी है, जो (अभुक्त भोग सम्बन्धी) कुतूहल नहीं करता, वह भिक्षु है । ७. छिन्नं सरं भोममन्तलिक्खं सुमिणं लक्खणदण्डवत्थुविजं । अंगवियारं सरस्स विजयं जो विज्जाहिं न जीवइ स भिक्खू ॥ उत्तराध्ययन सूत्र [७] जो साधक छिन्न (वस्त्रादि- छिद्र) विद्या, स्वर (सप्त स्वर — गायन) विद्या, भौम, अन्तरिक्ष, स्वप्न, लक्षणविद्या, दण्डविद्या, वास्तुविद्या, अंगस्फुरणादि विचार, स्वरविज्ञान, (पशु-पक्षी आदि के शब्दों का ज्ञान ) - इन विद्याओं द्वारा जो जीविका नहीं करता, वह भिक्षु है । ८. मन्तं मूलं विविहं वेज्जचिन्तं वमणविरेयणधूमणेत्त - सिणाणं । आउरे सरणं तिगिच्छियं च तं परिन्नाय परिव्वए स भिक्खू ॥ [८] मंत्र, मूल (जड़ीबूटी) आदि विविध प्रकार की वैद्यक - सम्बन्धी विचारणा, वमन, विरेचन, धूम्रपान की नली, नेती, (या नेत्र - संस्कारक अंजन, सुरमा आदि), (मंत्रित जल से स्नान की प्रेरणा, रोगादिपीड़ित (आतुर) होने पर (स्वजनों का) स्मरण, रोग की चिकित्सा करना - कराना आदि ज्ञपरिज्ञा से जानकर प्रत्याख्यानपरिज्ञा से त्याग करके जो संयममार्ग में विचरण करता है, वह भिक्षु है । खत्तियगणउग्गरायपुत्ता माहणभोइय विविहा य सिप्पिणो । नो सिं वयइ सिलोगपूयं तं परिन्नाय परिव्वए स भिक्खू ॥ ९. [९] क्षत्रिय ( राजा आदि), गण (मल्ल, लिच्छवी आदि गण), उग्र ( आरक्षक आदि), राजपुत्र, ब्राह्मण (माहन), भोगिक ( सामन्त आदि), नाना प्रकार के शिल्पी, इनकी प्रशंसा और पूजा के विषय में जो कुछ नहीं कहता, किन्तु इसे हेय जानकर विचरण करता है, वह भिक्षु है। १०. गिहिणो जे पव्वइएण दिट्ठा अप्पव्वइएण व संथुया हविज्जा । सिं इहलोइयफलट्ठा जो संथवं न करेइ स भिक्खू ॥ [१०] प्रव्रजित होने के पश्चात् जिन गृहस्थों को देखा हो (अर्थात् — जो परिचित हुए हों), अथवा जो प्रव्रजित होने से पहले के परिचित हों, उनके साथ इहलौकिक फल (वस्त्र, पात्र, भिक्षा, प्रसिद्धि, प्रशंसा आदि) की प्राप्ति के लिए जो संस्तव (परिचय) नहीं करता, वह भिक्षु है ।
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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