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________________ २३० उत्तराध्ययन सूत्र समिक्षुकम सत्ताधारियों या उच्चपदाधिकारियों की प्रशंसा या चापलूसी नहीं करता, न पूर्वपरिचितों की प्रशंसा या परिचय करता है और न निर्धनों की निन्दा एवं छोटे व्यक्तियों का तिरस्कार करता है। * ११वीं से १३ वीं गाथा तक में बताया गया है कि आहार एवं भिक्षा के विषय में सच्चा भिक्षु बहुत सावधान रहता है, वह न देने वाले या मांगने पर इन्कार करने वाले के प्रति मन में द्वेषभाव नहीं लाता और न आहार पाने के लोभ से गृहस्थ का किसी प्रकार का उपकार करता है। अपितु मन-वचन-काया से सुसंवृत होकर निःस्वार्थ भाव से उपकार करता है। वह नीरस एवं तुच्छ भिक्षा मिलने पर दाता की निन्दा नहीं करता, न समान्य घरों को टालकर उच्च घरों से भिक्षा लाता है। * १४वीं गाथा में बताया है कि सच्चा भिक्षु किसी भी समय, स्थान या परिस्थिति में भय नहीं करता। चाहे कितने ही भयंकर शब्द सुनाई दें, वह भयमुक्त रहता है। * १५वीं एवं १६वीं गाथा में बताया है कि सच्चा और निष्प्रपंच भिक्षु विविध वादों को जान कर भी स्वधर्म में दृढ़ रहता है। वह संयमरत, शास्त्ररहस्यज्ञ, प्राज्ञ, परीषहविजेता होता है। 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' के सिद्धान्त को हृदयंगम किया हुआ भिक्षु उपशान्त रहता है, न वह विरोधकर्ता के प्रति द्वेष रखता है, न किसी को अपमानित करता है। न उसका कोई शत्रु होता है, और न मोहहेतुक कोई मित्र। जो गृहत्यागी एवं एकाकी (द्रव्य से अकेला, भाव से रागद्वेष-रहित) होकर विचरता है, उसका कषाय मन्द होता है। वह परीषहविजयी, कष्टसहिष्णु, प्रशान्त, जितेन्द्रिय, सर्वथा परिगृहमुक्त एवं भिक्षुओं के साथ रहता हुआ भी अपने कर्मों के प्रति स्वयं को उत्तरदायी मान कर अन्तर से एकाकी निर्लेप एवं पृथक् रहता है। * नियुक्तिकार ने सच्चे भिक्षु के लक्षण ये बताए हैं—सद्भिक्षु रागद्वेषविजयी, मानसिक-वाचिक कायिक दण्डप्रयोग से सावधान, सावधप्रवृत्ति का मन-वचन-काया से तथा कृत-कारित-अनुमोदित रूप से त्यागी होता है। वह ऋद्धि, रस और साता (सुखसुविधा) को पाकर भी उसके गौरव से दूर रहता है, माया निदान और मिथ्यात्व रूप शल्य से रहित होता है, विकथाएँ नहीं करता, आहारादि संज्ञाओं, कषायों एवं विविध प्रमादों से दूर रहता है, मोह एवं द्वेष-द्रोह बढ़ाने वाली प्रवृत्तियों से दूर रह कर कर्मबन्धन को तोड़ने के लिए सदा प्रयत्नशील रहता है। ऐसा सुव्रत ऋषि ही समस्त ग्रन्थियों का भेदन कर अजरामर पद प्राप्त करता है। 000 १. उत्तरा. मूल, बृहवृत्ति, अ. १५, गा. १ से १६ तक २. रागद्दोसा दण्डा जोगा तह गारवाय सल्ला य। विगहाओ सण्णओ खुहे कसाया पमाया य ॥ ३७८॥ एयाइं तु खुदाई जे खलु भिंदंति सुव्वाया रिसिओ,..."उविंति अयरामरं ठाणं ॥३७९ ।। - उत्तरा. नियुक्ति
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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