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पन्द्रहदाँ अध्ययन
सभिक्षुकम अध्ययन-सार इस अध्ययन का नाम सभिक्षुक है। इसमें भिक्षु के लक्षणों का सांगोपांग निरूपण है। दशवैकालिक का दसवां अध्ययन 'सभिक्षु' है, उसमें २१ गाथाएँ हैं। प्रस्तुत अध्ययन भी सभिक्षुक है। दोनों के शब्द और उद्देश्य में सदृशता होते हुए भी दोनों के वर्णन में अन्तर है। इस अध्ययन में केवल १६ गाथाएँ हैं, परन्तु दशवैकालिकसूत्र के उक्त अध्ययन के पदों में कहीं-कहीं समानता होने पर भी भिक्षु के अधिकांश विशेषण नए हैं। प्रस्तुत समग्र अध्ययन से भिक्षु के
जीवनयापन की विधि का सम्यक् परिज्ञान हो जाता है। * भिक्षु का अर्थ जैसे-तैसे सरस-स्वादिष्ट आहार भिक्षा द्वारा लाने और पेट भर लेने वाला नहीं है।
जो भिक्षु अपने लक्ष्य के प्रति तथा मोक्षलक्ष्यी ज्ञान-चारित्र-तप के प्रति जागरूक नहीं होता, केवल सुख-सुविधा, पद-प्रतिष्ठा, प्रसिद्धि आदि के चक्कर में पड़कर अपने संयमी जीवन को जो देता है, वह मात्र द्रव्यभिक्षु है। वह वेश और नाम से ही भिक्षु है, वास्तविक भावभिक्षु नहीं है।
भावभिक्षु के लक्षणों का ही इस अध्ययन में निरूपण है। * प्रथम दो गाथाओं में भिक्षु को मुनिभाव की साधना द्वारा मोक्षप्राप्ति में बाधक निम्नोक्त बातों से
दूर रहने वाला बताया है-(१) राग-द्वेष, (२) माया-कपट पूर्वक आचरण-दम्भ, (३) निदान, (४) कामभोगों की अभिलाषा, (५) अपना परिचय देकर भिक्षादिग्रहण, (६) प्रतिबद्ध विहार, (७) रात्रिभोजन एवं रात्रिविहार, (८) सदोष आहार, (९) आश्रवरति, (१०) सिद्धान्त का अज्ञान, (११) आत्मरक्षा के प्रति लापरवाही, (१२) अप्राज्ञता, (१३) परीषहों से पराजित होना,
(१४) आत्मौपम्य-भावनाविहीनता, (१५) सजीव-निर्जीव पदार्थों के प्रति मूर्छा (आसक्ति)। * तीसरी से छठी गाथा तक में वर्णन है कि जो भिक्षु आक्रोश, वध, शीत, ऊष्ण, दंश-मशक, निषद्या, शय्या, सत्कार-पुरस्कार आदि अनकल-प्रतिकूल परीषहों में हर्ष-शोक से दूर रहकर उन्हें समभाव से सहन करता है, जो संयत, सुव्रत, सुतपस्वी एवं ज्ञान-दर्शनयुक्त आत्मगवेषक है तथा उन स्त्री-पुरुषों से दूर रहता है, जिनके संग से असंयम में पड़ जाए और मोह के बन्धन में
बँध जाए, कुतूहलवृत्ति तथा व्यर्थ के सम्पर्क एवं भ्रमण से दूर रहता है वही सच्चा भिक्षु है। * सातवीं और आठवीं गाथा में छिन्ननिमित्त आदि विद्याओं, मंत्र, मूल, वमन, विरेचन औषधि एवं चिकित्सा आदि के प्रयोगों से जीविका नहीं करने वाले को भिक्षु बताया गया है। आगमयुग में आजीविक आदि श्रमण इन विद्याओं तथा मंत्र, चिकित्सा आदि का प्रयोग करते थे। भगवान्
महावीर ने इन सबको दोषावह जान कर इनके प्रयोग से आजीविका चलाने का निषेध किया है। * नौवीं और दसवीं गाथा में बताया है कि सच्चा भिक्षु अपनी आवश्यकता पूर्ति के लिए धनिकों,