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________________ २२६ ४५. इमे य बद्धा फन्दन्ति मम हत्थऽज्जमागया । वयं च सत्ता कामेसु भविस्सामो जहा इमे ॥ [४५] हे आर्य ! हमारे ( मेरे और आपके ) हस्तगत हुए ये कामभोग जिन्हें हमने नियन्त्रित (बद्ध समझ रखा है वे क्षणिक हैं, नष्ट हो जाते हैं ।) और हम तो ( उन्हीं क्षणिक) कामभोगों में आसक्त हैं, किन्तु जैसे ये (पुरोहितपरिवार के चार सभ्य) बन्धनमुक्त हुए हैं, वैसे ही हम भी होंगे। ४६. सामिसं कुललं दिस्स बज्झमाणं निरामिसं । आमि सव्वमुज्झित्ता विहरिस्सामि निरामिसा ॥ [४६] मांस सहित गिद्ध को देख उस पर दूसरे मांसभक्षी पक्षी झपटते हैं (उसे बाधा - पीड़ा पहुँचाते हैं) और जिसके पास मांस नहीं होता उस पर नहीं झपटते, उन्हें देख कर मैं भी आमिष, अर्थात् मांस के समान समस्त कामभोगों को छोड़ कर निरामिष (निःसंग) होकर अप्रतिबद्ध विहार करूंगी। ४७. गिद्धोवमे उ नच्चाणं कामे संसारवड् ढणे | गो सुवणपासे व संकमाणो तणुं चरे ॥ उत्तराध्ययन सूत्र [ ४७ ] संसार को बढ़ाने वाले कामभोगों को गिद्ध के समान जान कर उनसे वैसे ही शंकित हो कर चलना चाहिए, जैसे गरुड़ के निकट सांप शंकित हो कर चलता है। ४८. नागो व्व बन्धणं छित्ता अप्पणो वसहिं वए। एयं पत्थं महारायं ! उसुयारि त्ति मे सुयं ॥ [४८] जैसे हाथी बन्धन को तोड़ कर अपने निवासस्थान ( बस्ती — वन) में चला जाता है, उसी प्रकार हे महाराज इषुकार ! हमें भी अपने (आत्मा के) वास्तविक स्थान (मोक्ष) में चलना चाहिए । यही एकमात्र पथ्य (आत्मा के लिए हितकारक) है, ऐसा मैंने (ज्ञानियों से) सुना है । विवेचन — 'वंतासी : वान्ताशी' - भृगुपुरोहित के सपरिवार दीक्षित होने के बाद राजा इषुकार उसके द्वारा परित्यक्त धन को लावारिस समझ कर ग्रहण करना चाहता था, इसलिए रानी कमलावती ने प्रकारान्तर से राजा को वान्ताशी ( वमन किये हुए का खाने वाला) कहा । १ नाहं रम० :- जैसे पक्षिणी पिंजरे में आनन्द नहीं मानती, वैसे ही मैं भी जरा मरणादि उपद्रवों से पूर्ण भवपंजर में आनन्द नहीं मानती । संताणछिन्ना : छिन्नसंताना — स्नेह - संतति - परम्परागत राग के बन्धन को काट कर। निरामिसा, सामिसं आदि शब्दों का भावार्थ - ४१वीं गाथा में निरामिसा का, ४६वीं में सामिसं, निरामिसं, आमिसं और निरामिसा शब्दों का चार बार प्रयोग हुआ है । अन्त में ४९वीं गाथा में 'निरामिसा' शब्द प्रयुक्त हुआ है। प्रथम अन्तिम निरामिषा शब्द का अर्थ है - गृद्धि हेतुभूत मनोज्ञ शब्दादि कामभोग अथवा धन। ४६ वीं गाथा के प्रथम दो चरणों में वह मांस के अर्थ में तथा शेष स्थानों में गृद्धिहेतुभूत मनोज्ञ शब्दादि कामभोग के अर्थ में प्रयुक्त है। १. बृहद्वृत्ति, पत्रांक ४०८ २. वही, पत्र ४०९ ३. बृहद्वृत्ति, पत्र ४०९-४१०
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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