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चौदहवाँ अध्ययन : इषुकारीय
२२५ [३८] (रानी कमलावती)-हे राजन् ! जो वमन किये हुए का उपभोग करता है वह पुरुष प्रशंसनीय नहीं होता। तुम ब्राह्मण (भृगु पुरोहित) के द्वारा त्यागे हुए धन को (अपने अधिकार में) लेने की इच्छा रखते हो।
३९. सव्वं जगं जइ तुहं सव्वं वावि धणं भवे।
सव्वं पि ते अपजत्तं नेव ताणाय तं तव॥ [३९] (मेरी दृष्टि से) सारा जगत् और जगत् का सारा धन भी यदि तुम्हारा हो जाए, तो भी वह सब तुम्हारे लिए अपर्याप्त ही होगा। वह तुम्हारी रक्षा नहीं कर सकता।
४०. मरिहिसि रायं ! जया तया वा मणोरमे कामगुणे पहाय।
एक्को हु धम्मो नरदेव! ताणं न विजई अन्नमिहेह किंचि॥ [४०] राजन् ! इन मनोज्ञ काम-गुणों को छोड़ कर जब या तब (एक दिन) मरना होगा। उस समय धर्म ही एकमात्र त्राता (संरक्षक) होगा। हे नरदेव ! यहाँ धर्म के अतिरिक्त अन्य कुछ भी रक्षक नहीं है।
४१. नाहं रमे पक्खिणी पंजरे वा संताणछिन्ना चरिस्सामि मोणं।
___अकिंचणा उज्जुकडा निरामिसा परिग्गहारंभनियत्तदोसा॥ [४१] जैसे पक्षिणी पिंजरे में सुख का अनुभव नहीं करती, वैसे मैं भी यहाँ आनन्द का अनुभव नहीं करती। अत: मैं स्नेह-परम्परा का बन्धन काट कर अकिंचन, सरल, निरामिष (विषय-रूपी आमिष से रहित) तथा परिग्रह और आरम्भरूपी दोषों से निवृत्त होकर मुनिधर्म का आचरण करूंगी।
४२. दवग्गिणा जहा रण्णे डज्झमाणेसु जन्तुसु।
अन्ने सत्ता पमोयन्ति रागद्दोसवसं गया। ४३. एवमेव वयं मूढा कामभोगेसु मुच्छिया।
डज्झमाणं न बुज्झामो रागहोसऽग्गिणा जगं॥ [४२-४३] जैसे वन में लगे हुए दावानल में जलते हुए जन्तुओं को देख कर रागद्वेषवश अन्य जीव प्रमुदित होते हैं
इसी प्रकार कामभोगों में मूर्च्छित हम मूढ लोग भी रागद्वेष की अग्नि में जलते हुए जगत् को नहीं समझ रहे हैं।
४४. भोगे भोच्चा वमित्ता य लहुभूयविहारिणो।
आमोयमाणा गच्छन्ति दिया कामकमा इव॥ [४४] आत्मार्थी साधक भोगों को भोग कर तथा यथावसर उनका त्याग करके वायु की तरह अप्रतिबद्धविहारी-लघुभूत होकर विचरण करते हैं। अपनी इच्छानुसार स्वतन्त्र विचरण करने वाले पक्षियों की तरह वे साधुचर्या करने में प्रसन्न होते हुए स्वतन्त्र विहार करते हैं।