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________________ २२४ उत्तराध्ययन सूत्र अग्गरसा : तीन अर्थ -(१) अग्र—प्रधान मधुर आदि रस । यद्यपि रस कामगुणों के अन्तर्गत आ जाते हैं, तथापि शब्दादि पांचों विषय रसों में इनके प्रति आसक्ति अधिक होने से इनका पृथक् ग्रहण किया गया है। ये प्रधान रस हैं। अथवा (२) कामगुणों का विशेषण होने से अग्र -रस-शृंगारादि रस वाले अर्थ होता है। (३) प्राचीन व्याख्याकारों के अनुसार-रसों अर्थात्-सुखों में अग्र जो कामगुण हैं।' पच्छा—पश्चात्-भुक्तभोगी होकर बाद में अर्थात् वृद्धावस्था में। पहाणमग्गं—महापुरुषसेवित प्रव्रज्यारूप मुक्तिपथ। भोई-भवति—यह सम्बोधन वचन है, जिसका भावार्थ है-हे ब्राह्मणि! पडिसोयगामी–प्रतिकूल प्रवाह की ओर गमन करने वाला। जुण्णो व हंसो पडिसोयगामी-जैसे बूढ़ा-अशक्त हंस नदी के प्रवाह के प्रतिकूल गमन शुरू करने पर भी अशक्त होने पर पुन: अनुकूल प्रवाह की ओर दौड़ता है, वैसे ही आप (पुरोहित) भी दुष्कर संयमभार को वहन करने में असमर्थ होकर कहीं ऐसा न हो कि पुनः अपने बन्धु-बान्धवों या पूर्वभुक्त भोगों को स्मरण करें। पुरोहित का पत्नी के प्रति गृहत्याग का निश्चय कथन-३४ वीं गाथा का आशय यह है कि जब ये हमारे दोनों पुत्र भोगों को साँप के द्वारा केंचुली के त्याग की तरह त्याग रहे हैं, तब मैं भुक्तभोगी इन भोगों को क्यों नहीं त्याग सकता? पुत्रों के बिना असहाय होकर गृहवास में मेरे रहने से क्या प्रयोजन है? धारेयसीला- धुराको जो वहन करें वे धौरेय। उनकी तरह अर्थात्-उठाये हुए भार को अन्त तक वहन करने वाले धौरेय -धोरी बैल होते हैं, उनकी तरह जिनका स्वभाव है। अर्थात्- महाव्रतों या संयम के उठाए हुए भार को अन्त तक जो वहन करने वाले हैं। क्रौंच और हंस की उपमा -पुरोहितानी द्वारा क्रौंच की उपमा स्त्री-पुत्र आदि के बन्धन से रहित अपने पुत्रों की अपेक्षा से दी गई है। हंस की उपमा इसके विपरीत स्त्री-पुत्रादि के बन्धन से युक्त अपने पति की अपेक्षा से दी गई है। पुरोहित-परिवार के दीक्षित होने पर रानी और राजा की प्रतिक्रिया एवं प्रतिबुद्धता ३७. पुरोहियं तं ससुयं सदारं सोच्चाऽभिनिक्खम्म पहाय भोए। कुडुंबसारं विउलुत्तमं तं रायं अभिक्खं समुवाय देवी॥ [३७] पुत्र और पत्नी के साथ पुरोहित ने भोगों को त्याग कर अभिनिष्क्रमण (गृहत्याग) किया है, यह सुन कर उस कुटुम्ब की प्रचुर और श्रेष्ठ धन-सम्पत्ति की चाह रखने वाले राजा को रानी कमलावती ने बार-बार कहा ३८. वन्तासी पुरिसो रायं! न सो होइ पसंसिओ। माहणेण परिच्चत्तं धणं आदाउमिच्छसि। १. बृहद्वृत्ति, पत्र ४०६ ३. बृहद्वृत्ति, पत्र ४०७ २. वही, पत्र ४०६ ४. वही, पत्र ४०७ ५. बृहद्वृत्ति, पत्र ४०७
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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