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________________ चौदहवाँ अध्ययन : इषुकारीय २२३ अपने सहोदर भाइयों (स्वजन-सम्बन्धियों) को याद न करना पड़े ! अत: मेरे साथ भोगों को भोगो। यह भिक्षाचर्या और (ग्रामानुग्राम) विहार करना आदि वास्तव में दुःखरूप ही है। ३४. जहा य भोई! तणुयं भुयंगो निम्मोयणिं हिच्च पलेइ मुत्तो। एमए जाया पयहन्ति भोए ते हं कहं नाणुगमिस्समेक्को॥ [३४] (पुरोहित)-भवति! (प्रिये!) जैसे सर्प शरीर से उत्पन्न हुई केंचुली को छोड़ कर मुक्त मन से (निरपेक्षभाव से) आगे चल पड़ता है, वैसे ही दोनों पुत्र भोगों को छोड़ कर चले जा रहे हैं। तब मैं अकेला क्यों रहूँ? क्यों न उनका अनुगमन करूँ? ३५. छिन्दित्तु जालं अबलं व रोहिया मच्छा जहा कामगुणे पहाय। धोरेयसीला तवसा उदारा धीरा हू भिक्खायरियं चरन्ति॥ [३५] जैसे रोहित मच्छ कमजोर जाल को (तीक्ष्ण पूंछ आदि से) काट कर बाहर निकल जाते हैं, वैसे ही (जाल के समान बन्धनरूप) कामभोगों को छोड़ कर धारण किये हुए गुरुतर भार को वहन करने वाले उदार (प्रधान), तपस्वी एवं धीर साधक भिक्षाचर्या (महाव्रती भिक्षु की चर्या) को अंगीकार करते हैं। (अतः मैं भी इसी प्रकार की साधुचर्या ग्रहण करूंगा।) ३६. जहेव कुंचा समइक्कमन्ता तयाणि जालाणि दलित्तु हंसा। पलेन्ति पुत्ता य पई य मझं ते हं कहं नाणुगमिस्समेक्का? [३६] (प्रतिबुद्ध पुरोहितपत्नी यशा)-जैसे क्रौंच पक्षी और हंस उन-उन स्थानों को लांघते हुए बहेलियों द्वारा फैलाये हुए जालों को तोड़ कर आकाश में स्वतंत्र उड़ जाते हैं, वैसे ही मेरे पुत्र और पति छोड़ कर चले जा रहे हैं; तब मैं पीछे अकेली रह कर क्या करूँगी? मैं भी क्यों न उनका अनुगमन करूं? (इस प्रकार पुरोहितपरिवार के चारों सदस्यों ने प्रव्रज्या ग्रहण कर ली ) विवेचन-वासिट्टि : वाशिष्ठि—यह पुरोहित द्वारा अपनी पत्नी को किया गया सम्बोधन है। इसका अर्थ है—'हे वशिष्ठगोत्रोत्पन्ने!' प्राचीन काल में गोत्र से सम्बोधित करना गौरवपूर्ण समझा जाता था। समाहिं लहई-शब्दश : अर्थ होता है—शाखाओं से वृक्ष समाधि (स्वास्थ्य) प्राप्त करता है, किन्तु इसका भावार्थ है-शोभा पाता है। शाखाएँ वृक्ष की शोभा, सुरक्षा और सहायता करने के कारण समाधि की हेतु हैं। ___ पहीणपुत्तस्स० आदि गाथाद्वय का तात्पर्य - जैसे शाखाएँ वृक्ष की शोभा, सुरक्षा और सहायता करने में कारणभूत हैं, वैसे ही मेरे लिए ये दोनों पुत्र हैं। पुत्रों से रहित अकेला में सूखे ढूंठ के समान हूँ। पांखों से रहित पक्षी उड़ने में असमर्थ हो जाता है तथा रणक्षेत्र में सेना के विना राजा शत्रुओं से पराजित हो जाता है और जहाज के टूट जाने से उसमें रखे हुए सोना, रत्न आदि सारभूत तत्त्व नष्ट हो जाने पर वणिक् विषादमग्न हो जाता है, वैसे ही पुत्रों के बिना मेरी दशा है। १. बृहद्वृत्ति, पत्र ४०५ २. बृहद्वृत्ति, पत्र ४०५
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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