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________________ ၃၃ उत्तराध्ययन सूत्र पूर्व माता, पिता, भाई, पुत्र, पुत्री, पत्नी के रूप में तथा मित्र-स्वजन-सम्बन्धी से परिचित के रूप में उत्पन्न हुआ है? (उ०) हाँ, गौतम! (एक बार नहीं), बार-बार यहाँ तक कि अनन्तवार तथारूप में उत्पन्न हुआ प्रबुद्ध पुरोहित, अपनी पत्नी से २९. पहीणपुत्तस्स हु नत्थि वासो वासिट्ठि! भिक्खायरियाइ कालो। साहाहि रुक्खो लहए समाहिं छिन्नाहि साहाहि तमेव खाणुं॥ [२९] (प्रबुद्ध पुरोहित)-हे वाशिष्ठि! पुत्रों से विहीन (इस घर में) मेरा निवास नहीं हो सकता। (अब मेरा) भिक्षाचर्या का काल (आ गया) है। वृक्ष शाखाओं से ही शोभा पाता है (समाधि को प्राप्त होता है)। शाखाओं के कट जाने पर वही वृक्ष लूंठ कहलाने लगता है। ३०. पंखाविहूणो व्व जहेह पक्खी भिच्चा विहूणो व्व रणे नरिन्दो। विवन्नसारो वणिओ व्व पोए पहीणपुत्तो मि तहा अहं पि॥ [३०] इस लोक में जैसे पंखों से रहित पक्षी तथा रणक्षेत्र में भृत्यों-सुभटों के बिना राजा, एवं (टूटे) जलपोत (जहाज) पर के स्वर्णादि द्रव्य नष्ट हो जाने पर जैसे वणिक् असहाय होकर दुःख पाता है, वैसे ही मैं भी पुत्रों के विना (असहाय होकर दुःखी) हूँ। ३१. सुसंभिया कामगुणा इमे ते संपिण्डिया अग्गरसप्पभूया। भुंजामु ता कामगुणे पगामं पच्छा गमिस्सामु पहाणमग्गं॥ __[३१] (पुरोहित-पत्नी)-तुम्हारे (घर में) सुसंस्कृत और सम्यक् रूप से संगृहीत प्रधान शृंगारादि ये रसमय जो कामभोग हमें प्राप्त हैं, इन कामभोगों को अभी खूब भोग लें, उसके पश्चात् हम मुनिधर्म के प्रधानमार्ग पर चलेंगे। ३२. भुत्ता रसा भोई! जहाइ णे वओ न जीवियट्ठा पजहामि भोए। लाभं अलाभं च सुहं च दुक्खं संचिक्खमाणो चरिस्सामि मोणं॥ [३२] (पुरोहित)-भवति! (प्रिये!) हम विषय-रसों को भोग चुके हैं। (अभीष्ट क्रिया करने में समर्थ) वय हमें छोड़ता जा रहा है। मैं (असंयमी या स्वर्गीय) जीवन (पाने) के लिये भोगों को नहीं छोड़ रहा हूँ। लाभ और अलाभ, सुख और दुःख को समभाव से देखता हुआ मुनिधर्म का आचरण करूँगा। (अर्थात्-मुक्ति के लिए ही मुझे दीक्षा लेनी है, कामभोगों के लिए नहीं)। ___ ३३. मा हू तुमं सोयरियाण संभरे जुण्णो व हंसो पडिसोत्तगामी। भुंजाहि भोगाइ मए समाणं दुक्खं खुभिक्खायरियाविहारो॥ [३३] (पुरोहितपत्नी)-प्रतिस्रोत (उलटे प्रवाह) में बहने वाले बूढ़े हंस की तरह कहीं तुम्हें फिर १. (क) वही, पत्र ४०५ (ख)"अयं णं भंते! जीव एगमेगस्स जीवस्स माइत्ताए (पियत्ताए) भाइत्ताए, पुत्तताए, धूयत्ताए,सुण्हत्ताए, भजत्ताए सुहि-सयण-संबंध-संथुयत्ताए उववण्णपुवे?,हंता गोयमा! असतिं अदुवा अणंतखुत्तो।"
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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