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चौदहवाँ अध्ययन : इषुकारीय
२२१ द्रव्यों को ही जाना जा सकता है। अमूर्त को नहीं। आत्मा अमूर्त है, इसलिए वह इन्द्रियग्राह्य नहीं है। अतः कुमारों ने इस गाथा द्वारा ४ तथ्यों का निरूपण कर दिया–(१) आत्मा है, (२) वह अमूर्त होने से नित्य है, (३) अध्यात्मदोष -(आत्मा में होने वाले मित्यात्व, राग-द्वेष आदि आन्तरिक दोष) के कारण कर्मबन्ध होता है और (४) कर्म बन्ध के कारण वह बार-बार जन्म-मरण करती है।
नो इन्दियगेज्झ०: दो अर्थ-(१) चूर्णि में नोइन्द्रियं एक शब्द मान कर अर्थ किया है—अमूर्त भावमन द्वारा ग्राह्य है, (२) बृहवृत्ति में नो और इन्द्रियों को पृथक्-पृथक् मान कर अर्थ किया है- अमूर्त वस्तु इन्द्रियग्राह्य नहीं है।
धम्म -सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप धर्म।
ओरुज्झमाणा परिरक्खयंता-पिता के द्वारा अवरुद्ध-घर से बाहर जाने से रोके गए थे। अथवा साधुओं के दर्शन से रोके गए थे। घर में ही रखे गए थे। या बाहर न निकलने पाएँ ऐसे कड़े पहरे में रखे गए थे।३
मच्चुणाऽब्भाहओ लोओ-मृत्यु की सर्वत्र निराबाध गति है, इसलिए यह विश्व मृत्यु द्वारा पीड़ित है।
अमोहा : अमोघ- अमोघा का यों तो अर्थ होता है-अव्यर्थ, अचूक। परन्तु प्रस्तुत गाथा में अमोघा का प्रयोग 'रात्रि' के अर्थ में किया गया है, उसका कारण यह है कि लोकोक्ति के अनुसार मृत्यु को कालरात्रि कहा जाता है। बहदवृत्ति में उपलक्षण से दिन का भी ग्रहण किया गया है।
दुहओ-यहाँ दुहओ का अर्थ है—तुम दोनों और हम (माता-पिता) दोनों।
पच्छा—पश्चात् यहाँ पश्चिम अवस्था-बुढ़ापे में मुनि बनने का संकेत है। इससे वैदिक धर्म की आश्रमव्यवस्था भी सूचित होती है।
अणागयं नेव य अस्थि किंचि : तीन अर्थ—(१) अनागत—अप्राप्त (मनोज्ञ सांसारिक कोई भी विषयसुखभोग आदि अभुक्त) नहीं हैं, क्योंकि अनादि काल से संसार में परिभ्रमण करने वाली आत्मा के लिए कुछ भी अभुक्त नहीं है। सब कुछ पहले प्राप्त हो ( भोगा जा) चुका है। पदार्थ या भोग की प्राप्ति के लिए घर में रहना आवश्यक नहीं है। (२) जहाँ मृत्यु की आगति -पहुँच-न हो, ऐसा कोई स्थान नहीं है। (३) आगतिरहित (अनागत) कोई भी नहीं है, जरा, मरण आदि दुःख-समूह सब आगतिमान् है। क्योंकि संसारी जीवों के लिए ये अटल हैं, अनिवार्य हैं।६।
विणइत्त रागं-राग का अर्थ यहाँ प्रसंगवश स्वजनों के प्रति आसक्ति है। वास्तव में कौन किसका स्वजन है और कौन किसका स्वजन नहीं है? आगम में कहा है-(प्र०) 'भंते! क्या यह जीव इस जन्म से १. (क) अध्यात्मशब्देन आत्मस्था मिथ्यात्वादय इहोच्यन्ते। -बृहवृत्ति, पत्र ४०२
(ख) 'कोह च माणं च तहेव मायं लोभं चउत्थं अज्झत्थदोसा।'-सूत्रकृतांग १/६/२५ २. (क) 'नोइन्द्रियं मनः।'- उत्तरा० चूर्णि० पृ० २२६ ।
(ख) नो इति प्रतिषेधे, इन्द्रियैः श्रोत्रादिभिर्ग्राह्यः- संवेद्यः इन्द्रियग्राह्यः। -बृहद्वृत्ति, पत्र ४०२ ३. (क) उत्तरा० बृहद्वृत्ति, पत्र ४०३ (ख) उत्तरा० प्रियदर्शिनीटीका, भा॰ २, पृ० ८४१ ४. (क) उत्तरा० चूर्णि० पृ० २२७ (ख) बृहवृत्ति, पत्र ४०३ ५. (क) वही, पत्र ४०४ (ख) उत्तरा० चूर्णि, पृ० २२७ ६. बृहद्वृत्ति, पत्र ४०४