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________________ २२० उत्तराध्ययन सूत्र दिया गया है, चौथी बात थी-भोग-भोगकर बाद में संन्यास लेना-उसके उत्तर में १३-१४-१५ वीं गाथा अन्नपमत्ते धणमेसमाणे०-एक ओर कामनाओं से अतृप्त व्यक्ति विषयसुखों की प्राप्ति के लिए इधर-उधर मारा-मारा फिरता है, दूसरी ओर वह स्वजन आदि अन्य लोगों के लिए अथवा अन्न (आहार) के लिए आसक्तचित होकर विविध उपायों से धन के पीछे पागल बना रहता है, ऐसे व्यक्ति के मनोरथ पूर्ण नहीं होते और बीच में बुढ़ापा और मृत्यु उसे धर दबाते हैं। वह धर्म में उद्यम किये विना यों ही खाली हाथ चला जाता है। २ धणेण किं धम्मधुराहिगारे०- इस गाथा का आशय यह है कि मुनिधर्म के आचरण में, भिक्षाचरी में, सम्यग्दर्शनादि गुणों के धारण करने में, अथवा संयम-पालन में धन की कोई आवश्यकता नहीं रहती, स्वजनों की भी आवश्यकता नहीं रहती, क्योंकि महाव्रतादि का पालन व्यक्तिगत है। और न ही कामभोगों की इनमें अपेक्षा है, बल्कि कामभोग, धन या स्वजन संयम में बाधक हैं। इसीलिए वेद में कहा है -"न प्रजया, न धनेन, त्योगेनैकेनामृतत्वमानशुः।" अर्थात् - न सन्तान से और न धन से, किन्तु एकमात्र त्याग से ही लोगों ने अमृतत्व प्राप्त किया है। जहा य अग्गी० : गाथा का तात्पर्य इस गाथा में भृगु पुरोहित द्वारा अपने पुत्रों को आत्मा के अस्तित्व से इन्कार करके संशय में डालने का उपक्रम किया गया है। क्योंकि समस्त धर्मसाधनाओं का मूल आत्मा है। आत्मा को शुद्ध और विकसित करने के लिए ही मुनिधर्म की साधना है। अतः पुरोहित का आशय था कि आत्मा के अस्तित्व का ही निषेध कर दिया जाए तो मुनि बनने की उनकी भावना स्वतः समाप्त हो जाएगी। यहाँ असद्वादियों का मत प्रस्तुत किया गया है, जिसमें आत्मा को उत्पत्ति से पूर्व 'असत्' माना जाता है। मद्य की तरह कारणसामग्री मिलने पर वह उत्पन्न एवं विनष्ट हो जाती है। अवस्थित नहीं रहती। अर्थात् जन्मान्तर में नहीं जाती। नास्तिक लोग आत्मा को 'असत्' इसलिए मानते हैं कि जन्म से पहले उसका कोई अस्तित्व नहीं होता, वे अनवस्थित इसलिए मानते हैं कि मृत्यु के पश्चात् उसका अस्तित्व नहीं रहता। तात्पर्य यह है कि नास्तिकों के मत में आत्मा न शरीर में प्रवेश करते समय दृष्टिगोचर होती है, न ही शरीर छूटते समय, अतएव आत्मा की स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। वस्तुतः सर्वथा असत् की उत्पत्ति नहीं होती। उत्पन्न वही होता है जो पहले भी हो और पीछे भी। जो पहले भी नहीं होता, पीछे भी नहीं होता, वह बीच में कैसे हो सकता है? यह आचारांग आदि में स्पष्ट कहा गया है। कुमारों द्वारा प्रतिवाद- आत्मा को असत् बनाने का खण्डन करते हुए कुमारों ने कहा-'आत्मा चर्मचक्षुओं से नहीं दिखती, इतने मात्र से उसका अस्तित्व न मानना युक्तिसंगत नहीं। इन्द्रियों के द्वारा मूर्त १. बृहद्वृत्ति, पत्र ४०० यदि पुत्राद् भवेत्स्वर्गो, दानधर्मो न विद्यते। मुषितस्तत्र लोकोऽयं, दानधर्मो निरर्थकः॥१॥ बहुपुत्रा दुली गोधा, ताम्रचूडस्तथैव च। तेषां च प्रथमः स्वर्गः पश्चाल्लोको गमिष्यति ॥२॥ २. बृहद्वत्ति, पत्र ४०० ३. (क) बृहद्वत्ति, पत्र ४०१ (ख) वेद, उपनिषद् ४. (क) बृहवृत्ति,पत्र ४०१ 'आत्मास्तित्वनुमूलत्वात् सकलधर्मानुष्ठानस्य तन्निराकरणायाह परोहितः।' (ख) आचारांग १/४/४/४६ 'जस्स नत्थि पुरा पच्छा, मझे तस्स कओ सिया?'
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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