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चौदहवाँ अध्ययन : इषुकारीय
२१९ जाता है । इन ऋणों को चुकाने के लिए यज्ञादिपूर्वक गृहस्थाश्रम का आश्रय करने वाला मनुष्य ब्रह्मलोक में पहुँचता है, किन्तु इसे छोड़ कर यानी वेदों को पढ़े विना, पुत्रों को उत्पन्न किये विना और यज्ञ किये विना, जो ब्राह्मण मोक्ष या ब्रह्मचर्य या संन्यास की इच्छा करता है या प्रशंसा करता है वह नरक में जाता है या धूल में मिल जाता है।
महाभारत में भी ब्राह्मण के लिए इसी विधान की पुष्टि मिलती है। प्रस्तुत गाथा में प्रयुक्त 'अहिज्ज वेए' से ब्रह्मचर्याश्रम स्वीकार करने का तथा परिविस्स विप्पे इत्यादि शेष पदों से गृहस्थाश्रम स्वीकार सूचित होता है।
आरणगा मुणी-ऐतरेय, कौषीतकी, तैत्तिरीय एवं बृहदारण्यक आदि ब्राह्मणग्रन्थ या उपनिषद् आरण्यक कहलाते हैं। इनमें वर्णित विषयों के अध्ययन के लिए अरण्य का एकान्तवास स्वीकार किया जाता था, इस दृष्टि से आरण्यक का अर्थ-आरण्यकव्रतधारी किया गया है। इस गाथा में प्रयुक्त इन दोनों पदों के दो अर्थ बृहद्वृत्ति में किये गये हैं-(१) आरण्यकव्रतधारी मुनि-तपस्वी होना । (२) आरण्यक शब्द से वानप्रस्थाश्रम और मुनि शब्द से संन्यासाश्रम ये दो अर्थ सूचित होते हैं।
वेया अहीया न भवंति ताणं- ऋग्वेद आदि वेदशास्त्रों के अध्ययन मात्र से किसी की दुर्गति से रक्षा नहीं हो सकती। कहा भी है-हे युधिष्ठर जो ब्राह्मण सिर्फ वेद पढ़ा हुआ है , वह अकारण है, क्योंकि अगर वेद पढ़ने मात्र से आत्मरक्षा हो जाती तो जिसे शील रुचिकर नहीं है, ऐसा दुःशील भी वेद पढ़ता है।
भुत्ता दिआo- भोजन कराए हुए ब्राह्मण कैसे तमस्तम में ले जाते हैं? इसका रहस्य यह है कि जो ब्राह्मण वैडालिक वृत्ति के हैं, जो यज्ञादि में होने वाली पशुहिंसा के उपदेशक हैं, कुमार्ग की प्ररूपणा करते हैं, ऐसे ब्राह्मणों की प्रेरणा से व्यक्ति महारम्भ करके तथा पशुवध करके घोर नरक के मेहमान बनते हैं। क्योंकि पंचेन्द्रियवध नरक का कारण है। इस दृष्टि से कहा गया है कि जो ऐसे वैडालिक ब्राह्मणों को भोजन कराते हैं, उन्हें वैसे अनाचारी ब्राह्मण तमस्तम नामक सप्तम नरक में जाने के कारण बनते हैं। अथवा तमस्तम का अर्थ-अज्ञान-अन्धविश्वास आदि घोर अन्धकार है, अतः ऐसे दुःशील ब्राह्मण यजमान को अज्ञान-अन्धविश्वास रूपी अन्धकार में ले जाते हैं।
जाया य पुत्ता न हवंति ताणं- वास्तव में पुत्र किसी भी माता-पिता को नरकादि गतियों में जाने से बचा नहीं सकते। उनके ही धर्मग्रन्थों में कहा है-यदि पुत्रों के द्वारा पिण्डदान से ही स्वर्ग मिल जाता है तो फिर दान आदि धर्मों का आचरण व्यर्थ हो जाएगा। दान के लिए फिर धन-धान्य का व्यय करके घर खाली करने की क्या जरूरत है? परन्तु ऐसी बात युक्तिविरुद्ध है। 'यदि पुत्र उत्पन्न करने से ही स्वर्ग प्राप्त होता तो डुली (कच्छपी), गोह, सूअरी तथा मुर्गे आदि अनेक पुत्रों वाले पशुपक्षियों को सर्वप्रथम स्वर्ग मिल जाना चाहिए, तत्पश्चात् अन्य लोगों को। प्रस्तुत गाथा (सं०१२) में वेद पढ़ कर आदि तीन बातों का समाधान १. (क) बौधायन धर्मसूत्र २/६/११/३३-३४ (ख) मनुस्मृति ३/१३१, १८६-१८७
(ग) महाभारत, शान्तिपर्व, मोक्षधर्म अ० २२७ (घ) बहवृत्ति, पत्र ३९९