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उत्तराध्ययन सूत्र
[२६] (पिता) - पुत्रो ! पहले हम सब (तुम दोनों और हम दोनों) एक साथ रह कर सम्यक्त्व और व्रतों से युक्त हों (अर्थात् - गृहस्थधर्म का आचरण करें) और पश्चात् ढलती उम्र में दीक्षित हो कर घरघर से भिक्षा ग्रहण करते हुए विचरेंगे।
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२७. जस्सत्थि मच्चुणा सक्खं जस्स वऽत्थि पलायणं ।
जो जाणे न मरिस्सामि सो हु कंखे सुए सिया ॥
[२७] (पुत्र) - (पिताजी!) जिसकी मृत्यु के साथ मैत्री हो, अथवा जो मृत्यु के आने पर भाग कर बच सकता हो, या जो यह जानता है कि मैं कभी मरूँगा ही नहीं, वही सोच सकता है कि ( आज नहीं) कल धर्माचरण कर लूँगा ।
२८. अज्जेव धम्मं पडिवज्जयामो जहिं पवन्ना न पुणब्भवामो । अणायं नेव य अत्थि किंचि सद्धाखमं णे विणइत्तु रागं ॥
[२८] (अत:) हम तो आज राग को दूर करके, श्रद्धा से सक्षम हो कर मुनिधर्म को अंगीकार करेंगे, जिसकी शरण पा कर इस संसार में फिर जन्म लेना न पड़े। कोई भी भोग हमारे लिए अनागत - अप्राप्त - अभुक्त) नहीं है; (क्योंकि वे अनन्त बार भोगे जा चुके हैं ।)
विवेचन — मुणीण— दोनों कुमारों के लिये यहाँ 'मुनि' शब्द का प्रयोग भावमुनि की अपेक्षा से है । अतः यहाँ मुनि शब्द का अर्थ मुनिभाव को स्वीकृत — भावमुनि समझना चाहिए। तवस्स वाघायकरंअनशनादि बारह प्रकार के तप तथा उपलक्षण से सद्धर्माचरण में विघ्न कारक-बाधक । १
न होई असुयाण लोगो : व्याख्या - वैदिक धर्मग्रन्थों का यह मन्तव्य है कि जिसके पुत्र नहीं होता, उसकी सद्गति नहीं होती, उसका परलोक बिगड़ जाता है, क्योंकि पुत्र के बिना पिण्डदान आदि देने वाला कोई नहीं होता, इसलिए अपुत्र को सद्गति या उत्तम परलोक-प्राप्ति नहीं होती। जैसा कि कहा है"अपुत्रस्य गतिर्नास्ति स्वर्गो नैव च नैव च।
तस्मात् पुत्रमुखं दृष्ट्वा पश्चात् धर्मं समाचरेत् ॥"
अर्थात् — पुत्रहीन की सद्गति नहीं होती है, स्वर्ग तो किसी भी हालत में नहीं मिलता। इसलिए पहले पुत्र का मुख देख कर फिर संन्यासादि धर्म का आचरण करो । २
aro गाथा की व्याख्या— भृगु परोहित का यह कथन —अपने दोनों विरक्त पुत्रों को गृहस्थाश्रम में रहने का अनुरोध करते हुए वैदिक धर्म की परम्परा की दृष्टि से है। इन मन्तव्य का समर्थन ब्राह्मण, धर्मसूत्र एवं स्मृतियों में मिलता है। बोधायन धर्मसूत्र के अनुसार ब्राह्मण जन्म से ही तीन ऋणों को साथ लेकर उत्पन्न होता है, यथा— ऋषिऋण, पितृऋण और देवऋण। ऋषिऋण —— वेदाध्ययन व स्वाध्याय के द्वारा, पितृऋण — गृहस्थाश्रम स्वीकार करके सन्तानोत्पत्ति द्वारा और देवऋण — यज्ञ यागादि के द्वारा चुकाया
१. बृहद्वृत्ति पत्र ३९८
२. (क) 'अनपत्यस्य लोका न सन्ति ' - वेद (ग) 'नापुत्रस्य लोकोऽस्ति । - ऐतरेय ब्राह्मण ७/३
(ख) ' पुत्रेण जायते लोकः । '