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________________ चौदहवाँ अध्ययन : इषुकारीय २१७ __ [१९] (पुत्र)-(पिता!) आत्मा अमूर्त है, वह इन्द्रियों के द्वारा ग्राह्य नहीं है (जाना नहीं जा सकता) और जो अमूर्त होता है, वह नित्य होता है। आत्मा के आन्तरिक रागादि दोष ही निश्चितरूप से उसके बन्ध के कारण हैं और बन्ध को ही (ज्ञानी पुरुष) संसार का हेतु कहते हैं। २०. जहा वयं धम्ममजाणमाणा जावं पुरा कम्ममकासि मोहा। ओरुज्झमाणा परिरक्खियन्ता तं नेव भुज्जो वि समायरामो॥ [२०] जैसे पहले धर्म को नहीं जानते हुए तथा आपके द्वारा घर में अवरुद्ध होने (रोके जाने) से एवं चारों ओर से बचाने पर ( घर से नहीं निकलने देंगे) से हम मोहवश पापकर्म करते रहे; परन्तु अब हम पुन: उस पापकर्म का आचरण नहीं करेंगे। २१. अब्भाहयंमि लोगंमि सव्वओ परिवारिए। ___ अमोहाहिं पडन्तीहिं गिहंसि न रइं लभे॥ [२१] यह लोक (जबकि) आहत (पीड़ित) है, चारों ओर से घिरा हुआ है, अमोघा आती जा रही है; (ऐसी स्थिति में) हम (अब) घर (संसार) में सुख नहीं पा रहे हैं। (अतः हमें अब अनगार बनने दो)। २२. केण अब्भाहओ लोगो? केण वा परिवारिओ? ___ का वा अमोहा वुत्ता? जाया! चिंतावरो हुमि॥ [२२](पिता)-पुत्रो! यह लोक किसके द्वारा आहत (पीड़ित) है? किससे घिरा हुआ है? अथवा अमोघा किसे कहते हैं? यह जानने के लिए मैं चिन्तातुर हूँ। २३. मच्चुणाऽब्भाहओ लोगो जराए परिवारिओ। __ अमोहा रयणी वुत्ता एवं ताय! वियाणह॥ [२३] (पुत्र)-पिताजी ! आप यह निश्चित जान लें कि यह लोक मृत्यु से आहत है तथा वृद्धावस्था से घिरा हुआ है और रात्रि (रात और दिन में समय-चक्र की गति) को अमोघा (अचूक रूप से सतत गतिशील) कहा गया है। २४. जा जा वच्चइ रयणी न सा पडिनियत्तई। अहम्मं कुणमाणस्स अफला जन्ति राइओ॥ [२४] जो-जो रात्रि (उपलक्षण से दिन–समय) व्यतीत हो रही है, वह लौट कर नहीं आती। अधर्म करने वाले की रात्रियाँ निष्फल व्यतीत हो रही हैं। २५. जा जा वच्चइ रयणी न सा पडिनियत्तई। धम्मं च कुणमाणस्स सफला जन्ति राइओ॥ · [२५] जो-जो रात्रि व्यतीत हो रही है, वह फिर कभी वापिस लौट कर नहीं आती। धर्म करने वाले व्यक्ति की रात्रियाँ सफल होती हैं। २६. एगओ संवसित्ताणं दुहओ सम्मत्तसंजुया। पच्छा जाया! गमिस्सामो भिक्खमाणा कुले कुले॥
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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