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________________ उत्तराध्ययन सूत्र [१३] ये कामभोग क्षणमात्र के लिए सुखदायी होते हैं, किन्तु फिर चिरकाल तक दु:ख देते हैं । अतः ये अधिक दुःख और अल्प (अर्थात् - तुच्छ) सुख देते हैं। ये संसार से मुक्त होने में विपक्षभूत ( बाधक) हैं और अनर्थों की खान हैं। २१६ १४. परिव्वयन्ते अणियत्तकामे अहो य राओ परितप्पमाणे । अन्नप्पमत्ते धणमेसमाणे पप्पोति मच्चुं पुरिसे जरं च ॥ [१४] जो काम से निवृत्त नहीं है, वह (अतृप्ति की ज्वाला से संतप्त होता हुआ) दिन-रात भटकता फिरता है । दूसरों (स्वजनों) के लिए प्रमत्त (आसक्तचित्त) होकर ( विविध उपायों से ) धन की खोज में लगा हुआ वह पुरुष (एकदिन ) जरा (वृद्धावस्था) और मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। १५. इमं च मे अत्थि इमं च नत्थि इमं च मे किच्च इमं अकिच्चं । तं एवमेवं लालप्पमाणं हरा हरंति त्ति कहं पमाए ? ॥ [१५] यह मेरा है, और यह मेरा नहीं है; (तथा) यह मुझे करना है और यह नहीं करना है; इस प्रकार व्यर्थ की बकवास ( लपलप) करने वाले व्यक्ति को आयुष्य का अपहरण करने वाले दिन और रात (काल) उठा ले जाते हैं। ऐसी स्थिति में प्रमाद करना कैसे उचित है ? १६. धणं पभूयं सह इत्थियाहिं सयणा तहा कामगुणा पगामा । तवं कए तप्प जस्स लोगो तं सव्व साहीणमिहेव तुब्भं ॥ [१६] (पिता) - जिसकी प्राप्ति के लिए लोग तप करते हैं; वह प्रचुर धन है, स्त्रियाँ हैं, मातापिता आदि स्वजन भी हैं तथा इन्द्रियों के मनोज्ञ विषय-भोग भी हैं, ये सब तुम्हें यहीं स्वाधीनरूप से प्राप्त हैं । (फिर परलोक के इन सुखों के लिए तुम क्यों भिक्षु बनना चाहते हो ? ) १७. धणेण किं धम्मधुराहिगारे सयणेण वा कामगुणेहि चेव । समणा भविस्सामु गुणोहधारी बहिंविहारा अभिगम्म भिक्खं ॥ [१७] (पुत्र) - (दशविध - श्रमण ) धर्म की धुरा को वहन करने के अधिकार ( को पाने) में धन से, स्वजन से या कामगुणों (इन्द्रियविषयों) से हमें क्या प्रयोजन है? हम तो शुद्ध भिक्षा का आश्रय लेकर गुण-समूह के धारक अप्रतिबद्धविहारी श्रमण बनेंगे। (इनमें हमें धन आदि की आवश्यकता ही नहीं रहेगी ।) १८. जहा य अग्गी अरणीउ सन्तो खीरे घयं तेल्ल महातिलेसु । एमेव जाया ! सरीरंसि सत्ता संमुच्छई नासइ नावचिट्ठे ॥ [१८] (पिता) – पुत्रो ! जैसे अरणि के काष्ठ में से अग्नि, दूध में से घी, तिलों में तेल, (पहले असत्) विद्यमान न होते हुए भी उत्पन्न होता है, उसी प्रकार शरीर में से जीव ( भी पहले) असत् (था, फिर) पैदा हो जाता है और (शरीर के नाश के साथ) नष्ट हो जाता है। फिर जीव का कुछ भी अस्तित्व नहीं रहता । १९. नो इन्दियग्गेज्झ अमुत्तभावा अमुत्तभावा वि य होइ निच्चो । अज्झत्थरं निययस्स बन्धो संसारहेउं च वयन्ति बन्धं ॥
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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