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________________ २१५ चौदहवाँ अध्ययन : इषुकारीय आमंतयामो : तात्पर्य—आमंत्रण कर रहे—पूछ रहे हैं, यह अर्थ होते हुए भी आशय है-अनुमति मांग रहे हैं। पुरोहित और उसके पुत्रों का परस्पर संवाद ८. अह तायगो तत्थ मुणीण तेसिं तवस्स वाघायकर वयासी। इमं वयं वेयविओ वयन्ति जहा न होई असुयाण लोगो॥ __ [८] यह (पुत्रों के द्वारा विरक्ति की बात) सुन कर पिता ने उस अवसर पर उन कुमारमुनियों के तप में बाधा उत्पन्न करने वाली यह बात कही-पत्रो! वेदों के ज्ञाता-यह वचन कहते हैं कि-निपते की—जिनके पुत्र नहीं होता, उनकी—(उत्तम) गति (परलोक) नहीं होती है।' ९. अहिज वेए परिविस्स विप्पे पुत्ते पडिट्ठप्प गिहंसि जाया। भोच्चाण भोए सह इत्थियाहिं आरणगा होह मुणी पसत्था॥ [९] (इसलिए) हे पुत्रो! (पहले) वेदों का अध्ययन करके, ब्राह्मणों को भोजन करा कर, स्त्रियों के साथ भोग भोगो और फिर पुत्रों को घर का भार सौंप कर आरण्यक (अरण्यवासी) प्रशस्त मुनि बनना। १०. सोयग्गिणा आयगुणिन्धणेणं मोहाणिला पजलणाहिएणं। संतत्तभावं परितप्पमाणं लालप्पमाणं बहुहा बहुं च॥ [१०] (इसके पश्चात्) जिसका अन्त:करण अपने रागादिगुणरूप इन्धन (जलावन) से एवं मोहरूपी पवन से अधिकाधिक प्रज्वलित तथा शोकाग्नि से संतप्त एवं परितप्त हो गया था और जो मोहग्रस्त हो कर अनेक प्रकार से अत्यधिक दीनहीन वचन बोल रहा था ११. पुरोहियं तं कमसोऽणुणन्तं निमंतयन्तं च सुए धणेणं। __जहक्कम कामगुणेहि चेव कुमारगा ते पसमिक्ख वक्कं ॥ [११] जो एक के बाद एक बार-बार अनुनय कर रहा था तथा जो आपने दोनों पुत्रों को धन का और क्रमप्राप्त कामभोगों का निमंत्रण दे रहा था; उस (अपने पिता) पुरोहित (भृगु नामक विप्र) को दोनों कुमारों ने भलीभांति सोच-विचार कर ये वाक्य कहे - १२. वेया अहीया न भवन्ति ताणं भुत्ता दिया निन्ति तमं तमेणं। जाया य पुत्ता न हवन्ति ताणं को णाम ते अणुमन्नेज एयं॥ [१२] (पुत्र)-अधीत वेद अर्थात् वेदों का अध्ययन त्राण (आत्मरक्षक) नहीं होता। (यज्ञयागादि के रूप में पशुवध के उपदेशक) द्विज (ब्राह्मण) भी भोजन कराने पर तमस्तम (घोर अन्धकार) में ले जाते हैं। अंगजात (औरस) पुत्र भी त्राण (शरण) रूप नहीं होते। अत: आपके इस (पूर्वोक्त) कथन का कौन अनुमोदन करेगा! १३. खणमेत्तसोक्खा बहुकालदुक्खा पगामदुक्खा अणिगामसोक्खा। संसारमोक्खस्स विपक्खभूया खाणी अणत्थाण उ कामभोगा॥ १. बृहद्वृत्ति, पत्र ३९७-३९८
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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