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________________ २१४ विरक्त पुरोहितकुमारों की पिता से दीक्षा की अनुमति ४. जाई - जरा - मच्चुभयाभिभूया बहिं विहाराभिनिविट्ठचित्ता । संसारचक्करस्स विमोक्खणट्ठा दट्ठूण ते कामगुणे विरत्ता ॥ पियपुत्तगा दोन्नि वि माहणस्स सकम्मसीलस्स पुरोहियस्स । सरित्तु पोराणि तत्थ जाई तहा सुचिण्णं तव - संजमं च ॥ ५. [४-५] स्वकर्मशील ( ब्राह्मण के योग्य यजन - याजन आदि अनुष्ठान में निरत) पुरोहित के दोनों प्रियपुत्रों ने एक बार मुनियों को देखा तो उन्हें अपने पूर्वजन्म का तथा उस जन्म में सम्यक्रूप से आचरित तप और संयम का स्मरण हो गया। ( फलतः ) वे दोनों जन्म, जरा और मृत्यु के भय से अभिभूत हुए । उनका अन्त:करण बहिर्विहार, अर्थात् — मोक्ष की ओर आकृष्ट हो गया । ( अतः वे दोनों संसारचक्र से विमुक्त होने के लिए (शब्दादि) कामगुणों से विरक्त हो गए। ६. ते कामभोगेसु असज्जमाणा माणुस्सएसुं जे यावि दिव्वा । मोक्खाभिकंखी अभिजायसड्डा तायं उवागम्म इमं उदाहु ॥ उत्तराध्ययन सूत्र [६] वे दोनों पुरोहित पुत्र मनुष्य तथा देवसम्बन्धी कामभोगों से अनासक्त और श्रद्धा (तत्त्वरुचि) संपन्न उन दोनों पुत्रों ने पिता के पास आकर इस प्रकार कहाअसासयं दट्टु इमं विहारं बहुअन्तरायं न य दीहमाउं । तम्हा हिंसि न रई लहामो आमन्तयामो चरिस्सामु मोणं ॥ ७. गए। मोक्ष के अभिलाषी [७] इस विहार (मनुष्य-जीवन के रूप में अवस्थान) को हमने अशाश्वत (अनित्य = क्षणिक) देख (जान) लिया। (साथ ही यह ) अनेक विघ्न-बाधाओं से परिपूर्ण है और मनुष्य आयु भी दीर्घ (लम्बी) नहीं है। इसलिए हमें अब घर में कोई आनन्द नहीं मिल रहा है । अत: अब मुनिभाव (संयम ) का आचरण (अंगीकार) करने के लिए आप से हम अनुमति चाहते हैं । विवेचन—बहिं विहाराभिणिविट्ठचित्ता - बहि: अर्थात् — संसार से बाहर, विहार- स्थान, अर्थात् मोक्ष। मोक्ष संसार से बाहर है। उसमें उन दोनों का चित्त अभिनिविष्ट हो गया — अर्थात् — जम गया। मुख कामगुणे विरत्ता — कामनाओं को उत्तेजित करने वाले शब्दादि । इन्द्रिविषयों से विरक्त — पराङ् क्योंकि कामगुण मुक्ति के विरोधी हैं, मुक्तिमार्ग में बाधक हैं। बृहद्वृत्तिकार ने कामगुणविरक्ति को ही जिनेन्द्रमार्ग की शरण में जाना बताया है। सकम्मसीलस्स पुरोहियस्स — स्वकर्मशील - ब्राह्मणवर्ण के अपने कर्म – यज्ञ-याग आदि अनुष्ठान में निरत पुरोहित के— शान्तिकर्त्ता के । सुचिणं- — यह तप और संयम का विशेषण है। इसका आशय है कि पूर्वजन्म में उन्होंने जो निदान आदि से रहित तप, संयम का आचरण किया था, उसका स्मरण हुआ। इमं विहारं — 'इस विहार' से आशय है— इस प्रत्यक्ष दृश्यमान मनुष्यजीवन (नरभव) में अवस्थान ।
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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