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________________ तेरहवाँ अध्ययन : चित्र-सम्भूतीय २०७ [३०] जैसे पंकजल (दलदल) में फँसा हुआ हाथी स्थल (सूखी भूमि) को देखता हुआ भी किनारे पर नहीं पहुँच पाता; उसी प्रकार हम (श्रवण-धर्म को जानते हुए) भी कामगुणों (शब्दादि विषयभोगों) में आसक्त बने हुए हैं, (इस कारण) भिक्षुमार्ग का अनुसरण नहीं कर पाते। ३१. अच्चेइ कालो तूरन्ति राइओ न यावि भोगा पुरिसाण निच्चा। उविच्च भोगा पुरिसं चयन्ति दुमं जहा खीणफलं व पक्खी॥ [३१] (मुनि)-राजन् ! समय व्यतीत हो रहा है। रात्रियाँ (दिन-रात) द्रुतगति से भागी जा रही हैं और मनुष्यों के (विषयसुख-) भोग भी नित्य नहीं हैं। कामभोग क्षीणपुण्य वाले व्यक्ति को वैसे ही छोड़ देते हैं, जैसे क्षीणफल वाले वृक्ष को पक्षी। ३२. जइ तं सि भोगे चइउं असत्तो अज्जाई कम्माई करेहि रायं! धम्मे ठिओ सव्वपयाणुकम्पी तो होहिसि देवो इओ विउव्वी॥ _[३२] राजन् ! यदि तू (इस समय) भोगों (कामभोगों) को छोड़ने में असमर्थ है तो आर्यकर्म कर। धर्म में स्थिर होकर समस्त प्राणियों पर दया-(अनुकम्पा-) परायण बन, जिससे कि तू भविष्य में इस (मनुष्यभव) के अनन्तर वैक्रियशरीरधारी (वैमानिक) देव हो सके। ३३. न तुज्झ भोगे चइऊण बुद्धी गिद्धो सि आरम्भ-परिग्गहेसु। ___ मोहं कओ एत्तिउ विप्पलावो गच्छामि रायं! आमन्तिओऽसि॥ [३३] (मुनि)-(शब्दादि काम-) भोगों को त्यागने की (तदनुसार धर्माचरण करने की) तेरी बुद्धि (दृष्टि या रुचि) नहीं है। तू आरम्भ-परिग्रह में गृद्ध (आसक्त) है। मैंने व्यर्थ ही इतना प्रलाप (बकवास) किया और तुझे सम्बोधित किया (-धर्माराधना के लिए आमन्त्रित किया)। राजन्! (अब) मैं जा रहा हूँ। विवचेन -प्रेयमार्गी और श्रेयमार्गी का संवाद - प्रस्तुत अध्ययन की गाथा ८ से ३३ तक पांच पूर्वजन्मों में साथ-साथ रहे हुए दो भाइयों का संवाद है। इनमें से पूर्वजन्म का सम्भूत एवं वर्तमान में ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती प्रेयमार्ग का प्रतीक है और पूर्वजन्म का चित्र और वर्तमान में गुणसार मुनि श्रेयमार्ग का प्रतीक है। प्रेयमार्ग के अनुगामी ब्रह्मदत्त चक्री ने पूर्व जन्म में आचरित सनिदान तपसंयम के फलस्वरूप विपुल भोगसामग्री प्राप्त की है, उसी पर उसे गर्व है, उसी में वह निमग्न रहता है। उसी भोगवादी प्रेयमार्ग की ओर मुनि को खींचने के लिए प्रयत्न करता है, समस्त भोग्य सामग्री के उपभोग के लिए मुनि को आमंत्रित करता है, परन्तु तत्त्वज्ञ मुनि कहते हैं कि तुम यह मत समझो कि तुमने ही अर्थकामपोषक भोगसामग्री प्राप्त की है। मैंने भी प्राप्त की थी परन्तु मैंने उन वैषयिक सुखभोगों को दुःखबीज, जन्ममरणरूप संसारपरिवर्द्धक, दुर्गतिकारक, आर्तध्यान के हेतु मान कर त्याग दिया है और शाश्वत-स्वाधीन आत्मिक सुख-शान्ति के हेतुभूत त्यागप्रधान श्रेयमार्ग की ओर अपने जीवन को मोड़ लिया है। इसमें मुझे अपूर्व सुखशान्ति और आनन्द है। तुम भी क्षणिक भोगों की आसक्ति और पापकर्मों की प्रवृत्ति को छोड़ो। जीवन नाशवान् है, मृत्यु प्रतिक्षण आ रही है। अतः कम से कम आर्यकर्म करो, मार्गानुसारी बनो, सम्यग्दृष्टि तथा व्रती श्रमणोपासक बनो, जिससे कि
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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