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________________ उत्तराध्ययन सूत्र २०८ तुम सुगति प्राप्त कर सको। माना कि तुम्हें पूर्व जन्म में आचरित तप, संयम एवं निदान के फलस्वरूप चक्रवर्ती की ऋद्धि एवं भोगसामग्री मिली है, परन्तु इनका उपभोग सत्कर्म में करो, आसक्तिरहित होकर इनका उपभोग करोगे तो तुम्हारी दुर्गति टल जाएगी। परन्तु ब्रह्मदत्त चक्री ने कहा- मैं यह सब जानता हुआ भी दल-दल में फंसे हुए हाथी की तरह कामभोगों में फंस कर उनके अधीन, निष्क्रिय हो गया हूँ । त्यागमार्ग के शुभपरिणामों को देखता हुआ भी उस ओर एक भी कदम नहीं बढ़ा सकता। इस प्रकार चित्र और संभूत इन दोनों का मार्ग इस छठे जन्म में अलग-अलग दो ध्रुवों की ओर हो गया । कडाण कम्माण न मोक्ख अतिथ – पूर्वजन्म में किये हुए अवश्य वेद्य – भोगने योग्य निकाचित कर्मों का फल अवश्य मिलता है, अर्थात् वे कर्म अपना फल अवश्य देते हैं। बद्धकर्म कदाचित् अनुभाग द्वारा भोगे जाएं तो भी प्रदेशोदय से तो अवश्यमेव भोगने पड़ते हैं। - - पंचालगुणोववेयं – (१) पंचाल नामक जनपद में इन्द्रियोपकारी जो भी विशिष्ट रूपादि गुण विषय हैं, उनसे उपेत—युक्त, (२) पंचाल में जो विशिष्ट वस्तुएँ, वे सब इस गृह में हैं । ३ नट्टेहि गीएहि वाइएहिं – बत्तीस पात्रों से उपलक्षित नाट्यों से या विविध अंगहारादिस्वरूप नृत्यों से, ग्राम-स्वरूप, मूर्च्छनारूप गीतों से तथा मृदंग-मुकुंद आदि वाद्यों से। आयाणहेउ — सद्विवेकी पुरुषों द्वारा जो ग्रहण किया जाता है, उस चारित्रधर्म को यहाँ आदान कहा गया है । उसके लिए | कत्तारमेव अणुजाई कम्मं— आशय-कर्म कर्त्ता का अनुगमन करता है, अर्थात् — जिसने जो कर्म किया है, उसी को उस कर्म का फल मिलता है, दूसरे को नहीं। दूसरा कोई भी उस कर्मफल में हिस्सेदार नहीं बनता । अपडिकंतस्स- —उक्त निदान की आलोचना, निन्दना, गर्हणा एवं प्रायश्चित्त रूप से प्रतिक्रमणा - प्रतिनिवृत्ति नहीं की । ७ ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती और चित्र मुनि की गति ३४. पंचालराया विय बम्भदत्तो साहुस्स तस्स वयंणं अकाउं। अणुत्तरे भुंजिय कामभोगे अणुत्तरे से नरए पविट्ठो ॥ [३४] पांचाल जनपद का राजा ब्रह्मदत्त उन तपस्वी साधु चित्र मुनि के वचन का पालन नहीं कर सका। फलत: वह अनुत्तर कामभोगों का उपभोग करके अनुत्तर (सप्तम) नरक में उत्पन्न (प्रविष्ट) हुआ । ३५. चित्तो वि कामेहि विरत्तकामो उदग्गचारित्त तवो महेसी । अणुत्तरं संजम पालइत्ता अणुत्तरं - १. उत्तराध्ययन- मूल एवं बृहद्वृत्ति, अ. १३, गा. ८ से ३२ तक का २. बृहद्वृत्ति, पत्र ३८४ ३. वही, पत्र ३८६ ५. बृहद्वृत्ति पत्र ३८७ ६. वही, पत्र ३८९ सिद्धिगइं गओ ॥ —त्ति बेमि । तात्पर्य, पत्र ३८४ से ३९१ तक ४. वही, पत्र ३८६ ७. वही, पत्र ३९०
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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