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________________ २०६ उत्तराध्ययन सूत्र २४. चिच्चां दुपयं च चउप्पयं च खेत्तं गिहं धणधनं च सव्वं। ___ कम्मप्पबीओ अवसो पयाइ परं भवं सुन्दर पावगं वा॥ [२४] द्विपद (पत्नी, पुत्र आदि स्वजन), चतुष्पद (गाय, घोड़ा आदि चौपाये पशु), खेत, घर, धन (सोना-चाँदी आदि), धान्य (गेहूँ, चावल आदि) सभी कुछ (यहीं) छोड़कर, केवल अपने किये हुए शुभाशुभ कर्मों को साथ लेकर यह पराधीन जीव, सुन्दर (देव-मनुष्य सम्बन्धी सुखद) अथवा असुन्दर (नरक-तिर्यञ्चसम्बन्धी दुःखद) परभव (दूसरे लोक) को प्रयाण करता है। २५. तं इक्कगं तुच्छसरीरगं से चिईगयं डहिय उ पावगेणं! भज्जा य पुत्ता वि य नायओ य दायारमन्नं अणुसंकमन्ति॥ [२५] चिता पर रखे हुए (अपने मृत सम्बन्धी के जीवरहित) उस एकाकी तुच्छ शरीर को अग्नि से जला कर, स्त्री, पुत्र अथवा ज्ञातिजन (स्वजन) दूसरे दाता (आश्रयदाता –स्वार्थसाधक) का अनुसरण करने लगते हैं —किसी अन्य के हो जाते हैं। २६. उवणिजई जीवियमप्पमायं वण्णं जरा हरइ नरस्स रायं! पंचालराया! वयणं सुणाहि मा कासि कम्माइं महालयाई॥ [२६] राजन् ! कर्म किसी भी प्रकार का प्रमाद (भूल) किये विना (क्षण-क्षण में आवीचिमरण के रूप में) जीवन को मृत्यु के निकट ले जा रहे हैं। वृद्धावस्था मनुष्य के वर्ण (शरीर की कांति) का हरण कर रही है। अतः हे पांचालराज! मेरी बात सुनो, (पंचेन्द्रियवध आदि) महान् (घोर) पापकर्म मत करो। २७. अहंपि जाणामि जहेह साहू! जं मे तुमं साहसि वक्कमेयं। भोगा इमे संगकरा हवन्ति जे दुजया अजो! अम्हारिसेहिं॥ [२७] (चक्रवर्ती) हे साधो! जिस प्रकार तुम मुझे इस (समस्त सांसारिक पदार्थों की अशरण्यता एवं अनित्यता आदि के विषय) में उपदेशवाक्य कह रहे हो, उसे मैं भी समझ रहा हूँ कि ये भोग संगकारक (आसक्ति में बांधने वाले) होते हैं, किन्तु आर्य! वे हम जैसे लोगों के लिए तो अत्यन्त दुर्जय हैं। २८. हत्थिणपुरम्मि चित्ता! दठूणं नरवई महिड्ढियं। कामभोगेसु गिद्धेणं नियाणमसुहं कडं॥ [२८] चित्र! हस्तिनापुर में महान् ऋद्धिसम्पन्न चक्रवर्ती (सनत्कुमार) नरेश को देखकर मैंने कामभोगों में आसक्त होकर अशुभ निदान (कामभोग-प्राप्ति का संकल्प) कर लिया था। २९. तस्स मे अपडिकन्तस्स इमं एयारिसं फलं। जाणमाणो विजं धम्मं कामभोगेसु मुच्छिओ॥ [२९] (मृत्यु के समय) मैंने उस निदान का प्रतिक्रमण नहीं किया, उसी का इस प्रकार का यह फल है कि धर्म को जानता-बूझता हुआ भी मैं कामभोगों में मूछित (आसक्त) हूँ। (उन्हें छोड़ नहीं पाता।) ३०. नागो जहा पंकजलावसन्नो दट्टुं थलं नाभिसमेइ तीरं। एवं वयं कामगुणेसु गिद्धा न भिक्खुणो मग्गमणुव्वयामो॥
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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