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तेरहवां अध्ययन : चित्र-सम्भूतीय
१८. नरिद! जाई अहमा नराणं सोवागजाई दुहओ गयाणं।
जहिं वयं सव्वजणस्स वेस्सा वसीय सोवाग-निवेसणेसु॥ [१८] हे नरेन्द्र ! मनुष्यों में श्वपाक (-चाण्डाल) जाति अधम जाति है, उसमें हम दोनों जन्म ले चुके हैं; जहाँ हम दोनों चाण्डालों की बस्ती में रहते थे, वहाँ सभी लोग हमसे द्वेष (घृणा) करते थे।
१९. तीसे य जाईइ उ पावियाए वुच्छामु सोवागनिवेसणेसु।
सव्वस्स लोगस्स दुगंछणिज्जा इहं तु कम्माई पुरेकडाई॥ [१९] उस पापी (नीच-निन्द्य) जाति में हम जन्मे थे और उन्हीं चाण्डालों की बस्तियों में हम दोनों रहे थे; (उस समय) हम सभी लोगों के घृणापात्र थे, किन्तु इस भव में (यहाँ) तो पूर्वकृत (शुभ) कर्मों का शुभ फल प्राप्त हुआ है।
२०. सो दाणिसिं राय! महाणुभागो महिड्डिओ पुण्णफलोववेआ।
चइत्तु भोगाइं असासयाइं आयाणहेउं अभिणिक्खमाहि॥ ___ [२०] (उन्हीं पूर्वजन्मकृत शुभ कर्मों के फलस्वरूप) इस समय वह (पूर्व जन्म में निन्दित— घृणित) तू महानुभाग (अत्यन्त प्रभावशाली) महान् ऋद्धिसम्पन्न, पुण्यफल से युक्त राजा बना है। अतः तू अशाश्वत (क्षणिक) भोगों का परित्याग करके आदान, अर्थात्-चारित्रधर्म की आराधना के लिए अभिनिष्क्रमण (प्रव्रज्या-ग्रहण) कर।
२१. इह जीविए राय! असासयम्मि धणियं तु पुण्णाई अकुव्वमाणो।
से सोयई मच्चुमुहोवणीए धम्मं अकाऊण परंसि लोए॥ [२१] राजन्! इस अशाश्वत (अनित्य) मानवजीवन में जो विपुल (या ठोस) पुण्यकर्म (शुभअनुष्ठान) नहीं करता, वह मृत्यु के मुख में पहुँचने पर पश्चात्ताप करता है। वह धर्माचरण न करने के कारण परलोक में भी पश्चात्ताप करता है।
२२. जहेह सीहो व मियं गहाय मच्चू नरं नेइ हु अन्तकाले।
न तस्स माया व पिया व भाया कालम्मि तम्मिंऽसहरा भवंति॥ [२२] जैसे यहाँ सिंह मृग को पकड़ कर ले जाता है, वैसे ही अनन्तकाल में मृत्यु मनुष्य को ले जाती है। उस (मृत्यु) काल में उसके माता-पिता एवं भार्या (पत्नी) (तथा भाई-बन्धु, पुत्र आदि) कोई भी मृत्यु दुःख के अंशधर (हिस्सेदार) नहीं होते।
२३. न तस्स दुक्खं विभयन्ति नाइओ न मित्तवग्गा न सुया न बन्धवा।
एक्को सयं पच्चणुहोइ दुक्खं कत्तारमेव अणुजाइ कम्मं॥ [२३] ज्ञातिजन (जाति के लोग), मित्रवर्ग, पुत्र और बान्धव आदि उसके (मृत्यु के मुख में पड़े हुए मनुष्य के) दु:ख को नहीं बाँट सकते। वह स्वयं अकेला ही दुःख का अनुभव करता (भोगता) है; क्योंकि कर्म कर्ता का ही अनुसरण करता है।