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तेरहवाँ अध्ययन
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चित्र-सम्भूतीय गया। भूतदत्त ने अपने दोनों पुत्रों को अध्ययन कराने की शर्त पर नमुचि का वध न करके उसे अपने घर में छिपा लिया। जीवित रहने की आशा से नमुचि दोनों चाण्डालपुत्रों को पढ़ाने लगा और कुछ ही वर्षों में उन्हें अनेक विद्याओं में प्रवीण बना दिया। चाण्डालपत्नी नमुचि की सेवा करती थी। नमुचि उस पर आसक्त होकर उससे अनुचित सम्बन्ध करने लगा। भूतदत्त को जब यह मालूम हुआ तो उसने क्रुद्ध होकर नमुचि को मार डालने का निश्चय कर लिया। परन्तु कृतज्ञतावश दोनों चाण्डालपुत्रों ने नमुचि को यह सूचना दे दी। नमुचि वहाँ से प्राण बचा कर भागा और हस्तिनापुर में जा कर सनत्कुमार चक्रवर्ती के यहाँ मन्त्री बन गया। चित्र और सम्भूत नृत्य और संगीत में अत्यन्त प्रवीण थे। उनका रूप और लावण्य आकर्षक था। एक बार वाराणसी में होने वाले वसन्त-महोत्सव में ये दोनों भाई सम्मिलित हुए। उत्सव में इनके नृत्य और संगीत विशेष आकर्षणकेन्द्र रहे। इनकी कला को देख-सुनकर जनता इतनी मुग्ध हो गई कि स्पृश्य-अस्पृश्य का भेद ही भूल गई। कुछ कट्टर ब्राह्मणों के मन में ईर्ष्या उमड़ी। जातिवाद को धर्म का रूप देकर उन्होंने राजा से शिकायत की कि 'राजन् ! इन दोनों चाण्डालपुत्रों ने हमारा धर्म नष्ट कर दिया है। इनकी नृत्य-संगीतकला पर मुग्ध लोग स्पृश्यास्पृश्य मर्यादा को भंग करके इनकी स्वेच्छाचारी प्रवत्ति को प्रोत्साहन दे रहे हैं।' इस पर राजा ने दोनों चाण्डालपत्रों को वाराणसी से बाहर निकाल दिया। वे अन्यत्र रहने लगे। वाराणसी में एक बार कौमुदीमहोत्सव था। उस अवसर पर दोनों चाण्डालपुत्र रूप बदल कर उस उत्सव में आए। संगीत के स्वर सुनते ही इन दोनों से न रहा गया। इनके मुख से भी संगीत के विलक्षण स्वर निकल पड़े। लोग मंत्रमुग्ध होकर इनके पास बधाई देने और परिचय पाने को आए। वस्त्र का आवरण हटाते ही लोग इन्हें पहचान गएं। ईर्ष्यालु एवं जातिमदान्ध लोगों ने इन्हें चाण्डालपुत्र कह कर बुरी तरह मार-पीट कर नगरी से बाहर निकाल दिया। इस प्रकार अपमानित एवं तिरस्कृत होने पर उन्हें अपने जीवन के प्रति घृणा हो गई। दोनों ने पहाड़ पर से छलांग मार कर आत्महत्या करने का निश्चय कर लिया। इसी निश्चय से दोनों पर्वत पर चढ़े और वहाँ से नीचे गिरने की तैयारी में थे कि एक निर्ग्रन्थ श्रमण ने उन्हें देख लिया और समझाया-'आत्महत्या करना कायरों का काम है। इससे दुःखों का अन्त होने के बदले वे बढ़ जाएँगे। तुम जैसे विमल बुद्धि वाले व्यक्तियों के लिए यह उचित नहीं । अगर शारीरिक और मानसिक समस्त दु:ख सदा के लिए मिटाना चाहते हो तो मुनिधर्म की शरण में आओ।' दोनों प्रतिबुद्ध हुए। दोनों ने निर्ग्रन्थ श्रमण से दीक्षा देने की प्रार्थना की। मुनि ने उन्हें योग्य समझ कर दीक्षा दी। गुरुचरणों में रहकर दोनों ने शास्त्रों का अध्ययन किया। गीतार्थ हुए तथा विविध उत्कट तपस्याएँ करने लगे, उन्हें कई लब्धियाँ प्राप्त हो गईं। ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए एक बार वे हस्तिनापुर आए। नगर के बाहर उद्यान में ठहरे। एक दिन मासखमण के पारण के लिए सम्भूत मुनि नगर में गए। भिक्षा के लिए घूमते देखकर वहाँ के राजमंत्री नमुचि ने उन्हें पहचान लिया। उसे सन्देह