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उत्तराध्ययनसूत्र
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शाताहै र वमान 6.5
३४. अच्चेमु ते महाभाग! न ते किंचि न अच्चिमो।
भुंजाहि सालिमं करं नाणावंजण-संजुयं॥ [३४] हे महाभाग! हम आपकी अर्चना करते हैं। आपका (चरणरज आदि) कुछ भी ऐसा नहीं है, जिसकी अर्चना हम न करें। (हम आपसे विनति करते हैं कि) दही आदि अनेक प्रकार के व्यञ्जनों से समिश्रित एवं शालि चावलों से निष्पन भोजन (ग्रहण करके) उसका उपभोग कीजिए।
३५. इमं च मे अस्थि पभूयमन्नं तं भुंजसु अम्ह अणुग्गहट्ठा।
___ "बाढं" ति पडिच्छए भत्तपाणं मासस्स उ पारणए महप्पा॥ [३५] मेरी (इस यज्ञशाला में) यह
पर अनुग्रह करने के लिए आप (इसे स्वीकार कर) भोजन करें। (पुरोहित के इस आग्रह पर) महान् आत्मा मुनि ने (आहार लेने की) स्वीकृति दी और एक मास के तप की पारणा करने हेतु आहार-पानी ग्रहण किया।
विवेचन — विसण्णो : विषादयुक्त -ये कुमार कैसे होश में आएंगे-सचेष्ट होंगे, इस चिन्ता से व्याकुल -विषण्ण।१
खमाह : आशय -भगवन् ! क्षमा करें। क्योंकि ये बच्चे मूढ और अज्ञानी हैं, ये दयनीय हैं, इन पर कोप करना उचित नहीं है। कहा भी है-आत्मद्रोही, मर्यादाविहीन, मूढ और सन्मार्ग को छोड़ देने वाले तथा
में इन्धन बनने वाले पर अनुकम्पा करनी चाहिए। वेयावडियं : प्रासंगिक अर्थ-वैयावृत्य -सेवा करते हैं। ३
अत्थं : तात्पर्य - यों तो अर्थ ज्ञेय होता है, इस कारण उसका एक अर्थ -समस्त पदार्थ हो सकता है, किन्तु यहाँ प्रसंगवश अर्थ से तात्पर्य है -शुभाशुभ कर्मविभाग अथवा राग-द्वेष का फल, या शास्त्रों का अभिधेय-प्रतिपाद्य विषय।
धम्म : धर्म का अर्थ यहाँ श्रुत-चारित्ररूप धर्म, अथवा दशविध श्रमणधर्म है। वियाणमाणा : अर्थ-विशेष रूप से या विविध प्रकार से जानते हुए।
भूइपन्ना : तीन अर्थ - भूतिप्रज्ञ में 'भूति' शब्द के तीन अर्थ प्राचीन आचार्यों ने माने हैं – (१) मंगल (२) वृद्धि और (३) रक्षा। प्रज्ञा का अर्थ है -जिससे वस्तुतत्त्व जाने जाए, ऐसी बुद्धि। अतः भूतिप्रज्ञ के अर्थ हुए -(१) जिनकी प्रज्ञा सर्वोत्तम मंगलरूप हो, (२) सर्वश्रेष्ठ वृद्धि युक्त हो, या (३) जो बुद्धि प्राणरक्षा या प्राणिहित में प्रवृत्त हो।' १. बृहद्वृत्ति, पत्र ३६७ __ आत्मद्रुहममर्यादं मूढमुज्झितसत्पथम्।
सुतरामनुकम्पेत नरकार्चिष्मदिन्धनम्॥ -बृहद्वृत्ति, पत्र ३६७ ३. "वैयावृत्यं प्रत्यनीक-प्रतिघातरूपं कुर्वन्ति।"-बृहवृत्ति, पत्र ३६८ ४. बृहद्वृत्ति, पत्र ३६८ ५. भूतिप्रज्ञा -भूतिमंगलं वृद्धि रक्षा चेति वृद्धाः। प्रज्ञायतेऽनया वस्तुतत्त्वमिति प्रज्ञा। भूति: मंगलं, सर्वमंगलोत्तमत्वेन,
वृद्धिर्वा वृद्धिविशिष्टत्वेन, रक्षा वा प्राणिरक्षकत्वेन प्रज्ञाबुद्धिर्यस्येति भूतिप्रज्ञः।-बृहद्वृत्ति, पत्र ३६८