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________________ बारहवाँ अध्ययन : हरिकेशीय १८१ अगणिं व पक्खंद पतंगसेणा : भावार्थ -जैसे पतंगों का झुंड अग्नि में गिरते ही तत्काल विनष्ट हो जाता है, इसी प्रकार तुम भी इनकी तपरूपी अग्नि में गिर कर नष्ट हो जाओगे। १ उग्गतवो -जो एक से लेकर मासखमण आदि उपवासयोग का प्रारम्भ करके जीवनपर्यन्त उसका निर्वाह करता है, वह उग्रतपा है। २ अकम्मचिट्ठे : दो अर्थ - (१) जिनमें क्रिया करने की चेष्टा - (कर्महेतुकव्यापार) न रही हो, अर्थात् – जो मूर्च्छित हो गए हों, (२) जिनकी यज्ञ में इन्धन डालने आदि की चेष्टा -कर्मचेष्टा बन्द हो गई हो। छात्रों की दुर्दशा से व्याकुल रुद्रदेव द्वारा मुनि से क्षमायाचना तथा आहार के लिए प्रार्थना ३०. ते पासिया खण्डिय कट्ठभूए विमणो विसण्णो अह माहणो सो। इसिं पसाएइ सभारियाओ हीलं च निन्दं च खमाह भन्ते!॥ [३०] (पूर्वोक्त दुर्दशाग्रस्त) उन छात्रों को काष्ठ की तरह निश्चेष्ट देखकर वह रुद्रदेव ब्राह्मण उदास एवं चिन्ता से व्याकुल होकर अपनी पत्नी भद्रा को साथ लेकर उन ऋषि (हरिकेश बल मुनि) को प्रसन्न करने लगा -"भंते! हमने आपकी जो अवहेलना (अवज्ञा) और निन्दा की, उसे क्षमा करें।" ३१. बालेहिं मूढेहिं अयाणएहिं जं हीलिया तस्स खमाह भन्ते! महप्पसाया इसिणो हवन्ति न हु मुणी कोवपरा हवन्ति॥ [३१] 'भगवन् ! इन अज्ञानी (हिताहित विवेक से रहित) मूढ (कषाय के उदय से व्यामूढ (चित्त वाले) बालकों ने आपकी जो अवहेलना (अवज्ञा) की है, उसके लिए क्षमा करें। क्योंकि ऋषिजन महान् प्रसाद-प्रसन्नता से युक्त होते हैं। मुनिजन कोप-परायण नहीं होते। ३२. पुव्विं च इण्हि च अणागयं च मणप्पदोसो न मे अत्थि कोइ। जक्खा हु वेयावडियं करेन्ति तम्हा हु एए निहया कुमारा॥ [३२] (मुनि-) मेरे मन में न कोई प्रद्वेष पहले था, न अब है और न ही भविष्य में होगा। ये (तिन्दुक-वनवासी) यक्ष मेरी वैयावृत्य (सेवा) करते हैं। ये कुमार उनके द्वारा ही प्रताड़ित किए गए हैं। ३३. अत्थं च धम्मं च वियाणमाणा तुब्भे न वि कुप्पह भूइपन्ना। __ तुब्भं तु पाए सरणं उवेमो समागया सव्वजणेण अम्हे ॥ [३३] (रुद्रदेव -) अर्थ और धर्म को विशेष रूप से जानने वाले भूतिप्रज्ञ आप क्रोध न करें। हम सब लोग मिलकर आपके चरणों की शरण स्वीकार करते हैं।" १. वही, पत्र ३६६ २. तत्त्वार्थराजवार्तिक, पृ. २०६ ३. बृहद्वत्ति, पत्र ३६६ : अकर्मचेष्टाश्च - अविद्यमानकर्महेतव्यापारतया अकर्मचेष्टाः यदा-क्रियन्त इति कर्माणि अग्नौ समित्प्रक्षेपणादीनि तद्विषया चेष्टा कर्मचेष्टेह गृह्यते।
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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