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________________ बारहवाँ अध्ययन : हरिकेशीय १९१ - पभूयमन्नं – प्रभूत अन्न का आशय – यहाँ मालपूए, खांड के खाजे आदि समस्त प्रकार के भोज्य पदार्थ (भोजन) से है। पहले जो 'शालि धान का ओदन' का निरूपण था, वह समस्त भोजन में उसकी प्रधानता बताने के लिए ही था । आहारग्रहण के बाद देवों द्वारा पंच दिव्यवृष्टि और ब्राह्मणों द्वारा मुनिमहिमा ३६. तहियं गन्धोदय- पुप्फवासं दिव्वा तहिं वसुहारा य वुट्ठा । पहयाओ दुन्दुहीओ सुरेहिं आगासे अहो दाणं च घुटुं ॥ [३६] (जहां तपस्वी मुनि ने आहार ग्रहण किया था,) वहाँ (यज्ञशाला में) देवों ने सुगन्धित जल, पुष्प एवं दिव्य (श्रेष्ठ) वसुधारा (द्रव्य की निरन्तर धारा) की वृष्टि की और दुन्दुभियाँ बजाईं तथा आकाश में 'अहो दानम्, अहो दानम्' उद्घोष किया। ३७. सक्खं खुदीसइ तवोविसेसो न दीसई जाइविसेस कोई । सवागत् हरिएस साहू जस्सेरिस्सा इड्डि महाणुभागा ॥ [३७] (ब्राह्मण विस्मित होकर कहने लगे) तप की विशेषता - महत्ता तो प्रत्यक्ष दिखाई दे रही है, जाति की कोई विशेषता नहीं दीखती । जिसकी ऐसी ऋद्धि है, महती चमत्कारी अचिन्त्य शक्ति (महानुभाग ) है, वह हरिकेश मुनि श्वपाक - ( चाण्डाल) पुत्र है । (यदि जाति की विशेषता होती तो देव हमारी सेवा एवं सहायता करते, इस चाण्डालपुत्र की क्यों करते?) विवेचन –'सक्खं खु दीसइ० ' : व्याख्या - प्रस्तुत गाथा में प्रयुक्त उद्गार हरिकेशबल मुनि के तप, संयम एवं चारित्र का प्रत्यक्ष चमत्कार देख कर विस्मित हुए ब्राह्मणों के हैं। वे अब सुलभबोधि एवं मुनि के प्रति श्रद्धालु भक्त बन गए थे। अतः उनके मुख से निकलती हुई यह वाणी श्रमण संस्कृति के तत्त्व को अभिव्यक्त कर रही है कि जातिवाद अतात्त्विक है, कल्पित है। इसी सूत्र में आगे चल कर कहा जाएगा" अपने कर्म से ही मनुष्य ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र होता जन्म (जाति) से नहीं ।" सूत्रकृतांग में तो स्पष्ट कह दिया है - "मनुष्य की सुरक्षा उसके ज्ञान और चारित्र से होती है, जाति और कुल से नहीं।" व्यक्ति की उच्चता-नीचता का आधार उसकी जाति और कुल नहीं, ज्ञान-दर्शन- चारित्र या तप-संयम है। जिसका ज्ञान - दर्शन- चारित्र उन्नत है, या तप-संयम का आचरण / अधिक है, वही उच्च है, जो आचारभ्रष्ट है, ज्ञान- दर्शन - चारित्र से रहित है, वह चाहे ब्राह्मण की सन्तान ही क्यों न हो, निकृष्ट है । जैनधर्म का उद्घोष है कि किसी भी वर्ण, जाति, देश, वेष या लिंग का व्यक्ति हो, अगर रत्नत्रय की निर्मल साधना करता है तो उसके लिए सिद्धि-मुक्ति के द्वार खुले हैं। यही प्रस्तुत गाथा का आशय है । २ १. प्रभूतं प्रचुरं अन्नं-मण्डक खण्डखाद्यादि समस्तमपि भोजनम् । यत्प्राक् पृथक् ओदनग्रहणं तत्तस्य सर्वान्नप्रधानत्वख्यापनार्थम् । - बृहद्वृत्ति, पत्र ३६९ (क) कम्मुणां बंभणो होई ........उत्तरा. अ. २५ / ३१ (ख) न तस्स जाई व कुलं व ताणं, नन्नत्थ विज्जाचरणं सुचिण्णं । (ग) उववाईसूत्र १ (घ) बृहद्वृत्ति, पत्र ३६९-३७० २. - सूत्रकृतांग १/१३/११
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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