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________________ १८४ १४. कोहो य माणो य वहो य जेसिं मोसं अदत्तं च परिग्गहं च । ते माहणा जाइविज्जाविहूणा ताई तु खेत्ताइं सुपावयाई ॥ [१४] (यक्ष—) जिनके जीवन में क्रोध और अभिमान है, वध (हिंसा) और असत्य (मृषावाद) है, अदत्तादान (चोरी) और परिग्रह है, वे ब्राह्मण जाति और विद्या से विहीन हैं, वे क्षेत्र स्पष्टतः पापक्षेत्र हैं। १५. तुम्भेत्थ भो ! भारधरा गिराणं अहं न जाणाह अहिज्ज वेए । उच्चावयाई मुणिणो चरन्ति ताई तु खेत्ताई सुपेसलाई ॥ [१५] हे ब्राह्मणो ! तुम तो इस जगत् में (केवल) वाणी (शास्त्रवाणी) का भार वहन करने वाले हो ! वेदों को पढ़कर भी उनके ( वास्तविक ) अर्थ को नहीं जानते । जो मुनि ऊंच-नीच - मध्यम घरों में (समभावपूर्वक) भिक्षाटन करते हैं, वे ही वास्तव में उत्तम क्षेत्र हैं । १६. अज्झावयाणं पडिकूलभासी पभाससे किं नु सगासि अम्हं । अवि एवं विणस्सउ अन्नपाणं न य णं दहामु तुमं नियण्ठा ! ॥ उत्तराध्ययनसूत्र [१६] (रुद्रदेव ) अध्यापकों (उपाध्यायों) के प्रतिकूल बोलने वाले निर्ग्रन्थ ! तू हमारे समक्ष क्या बकवास कर रहा है? यह अन्न-पान भले ही सड़कर नष्ट हो जाए, परन्तु तुझे तो हम हर्गिज नहीं देंगे। १७. समिईहि मज्झं सुसमाहियस्स गुत्तीहि गुत्तस्स जिइन्दियस्स । जड़ मे न दाहित्य अहेसणिज्जं किमज्ज जन्नाण लहित्थ लाहं ? ॥ [१७] (यक्ष—) मैं ईर्या आदि पांच समितियों से सुसमाहित हूँ, तीन गुप्तियों से गुप्त हूँ और जितेन्द्रिय हूँ, यदि तुम मुझे यह एषणीय (एषणाविशुद्ध ) आहार नहीं दोगे, तो आज इन यज्ञों का क्या (पुण्यरूप) लाभ पाओगे ? विवेचन - रुद्रदेव-यक्ष- संवाद - प्रस्तुत सात गाथाओं में रुद्रदेव याज्ञिक और महामुनि के शरीर में प्रविष्ट यक्ष की परस्पर चर्चा है। एक प्रकार से यह ब्राह्मण और श्रमण का विवाद है। एगपक्खं— एकपक्ष: व्याख्या - यह भोजन का विशेषण है। एकपक्षीय इसलिए कहा गया है कि यह यज्ञ में निष्पन्न भोजन केवल ब्राह्मणों के लिए है । अर्थात् - यज्ञ में सुसंस्कृत भोजन ब्राह्मण जाति के अतिरिक्त अन्य किसी जाति को नहीं दिया जा सकता, विशेषत: शूद्र को तो बिल्कुल नहीं दिया जा सकता । १ अन्नपाणं - अन्न का अर्थ है -भात आदि तथा पान का अर्थ है- द्राक्षा आदि फलों का रस या पना या कोई पेय पदार्थ । २ १. (क) एगपक्खं नाम नाब्राह्मणेभ्यो दीयते । - उत्तरा चूर्णि, पृ. २०५ (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ३६० - "न शूद्राय मतिं दद्यान्नोच्छिष्टं, न हविः कृतम् । " न चास्योपदिशेद् धर्मं, न चास्य व्रतमादिशेत् ॥' २. बृहद्वृत्ति, पत्र ३६० : " अन्नं च - ओदनादि, पानं च द्राक्षापानाद्यन्नपानम् ।"
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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