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________________ बारहवाँ अध्ययन : हरिकेशीय १८५ आससाए -यदि अच्छी वृष्टि हुई, तब तो ऊँचे भू-भाग में फसल अच्छी होगी, अगर वर्षा कम हुई तो नीचे भू-भाग में अच्छी पैदावार होगी, इस आशा से किसान ऊंची और नीची भूमि में यथावसर बीज बोते हैं। एआए सद्धाए- किसान की पूर्वोक्तरूप श्रद्धा - आशा के समान आशा रखकर भी मझे दान दो। इसका आशय यह है कि चाहे आप अपने को ऊँची भूमि के समान और मुझे नीची भूमि के तुल्य समझें, फिर भी मुझे देना उचित है। आराहए पुण्णमिणं खुखेत्तं : भावार्थ -यह प्रत्यक्ष दिखाई देने वाला क्षेत्र (मैं) ही पुण्यरूप है - शुभ है; अर्थात् -पुण्यप्राप्ति का हेतुरूप क्षेत्र है। इसी की आराधना करो। ___ सुपेसलाई-यों तो सुपेशल का अर्थ -शोभन-सुन्दर या प्रीतिकर किया गया है, किन्तु यहाँ सुपेशल का प्रासंगिक अर्थ उत्तम या पुण्यरूप ही संगत है। जाइविज्जाविहीणा-यक्ष ने याज्ञिक ब्राह्मण से कहा -जो ब्राह्मण क्रोधादि से युक्त हैं, वे जाति और विद्या से कोसों दूर हैं; क्योंकि जाति (वर्ण)-व्यवस्था क्रिया और कर्म के विभाग से है। जैसे कि ब्रह्मचर्यपालन से ब्राह्मण, शिल्प के कारण शिल्पिक। किन्तु जिसमें ब्राह्मणत्व की क्रिया (आचरण) और कर्म (कर्त्तव्य या व्यवसाय) न हो, वे तो नाममात्र के ब्राह्मण हैं । सत्-शास्त्रों की विद्या (ज्ञान) भी उसी में मानी जाती है, जिनमें अहिंसादि पांच पवित्र व्रत हों; क्योंकि ज्ञान का फल विरति है। ___ उच्चावयाई : दो रूप : तीन अर्थ -(१) उच्चावचानि-उत्तम-अधम या उच्च नीच-मध्यम कुलोंघरों में, (२) अथवा उच्चावच का अर्थ है -छोटे-बड़े नानाविध तप, अथवा (३) उच्चव्रतानि -अर्थात् शेष व्रतों की अपेक्षा से महाव्रत उच्च व्रत हैं, जिनका आचरण मनि करते हैं। वे तम्हारी तरह अजितेन्द्रिय व अशील नहीं हैं। अत: वे उच्चव्रती मुनिरूप क्षेत्र ही उत्तम हैं। ५ अज : दो अर्थ -(१) अद्य -आज, इस समय जो यज्ञ आरम्भ किया है, उसका, (२) आर्योः हे आर्यो! लभित्थ लाभं : भावार्थ -विशिष्ट पुण्यप्राप्तिरूप लाभ तभी मिलेगा, जब पात्र को दान दोगे। कहा भी है -अपात्र में दही, मधु या घृत रखने से शीघ्र नष्ट हो जाते हैं, इसी प्रकार अपात्र में दिया हुआ दान १. बृहवृत्ति पत्र ३६१ २. वही, पत्र ३६१ ३. वही, पत्र ३६१ ४. क्रियाकर्मविभागेन हि चातुर्वर्ण्यव्यवस्था। यत उक्तम् "एकवर्णमिदं सर्वं, पूर्वमासीधुधिष्ठिर! क्रियाकर्मविभागेन चातुर्वर्ण्य व्यवस्थितम्॥" "ब्राह्मणो ब्रह्मचर्येण, यथा शिल्पेन शिल्पिकः। अन्यथा नाममात्रं स्यादिन्द्रगोपककीटवत् ॥" "तज्ज्ञानमेव न भवति, यस्मिन्नदिते विभाति रागगणः। तमसः कुतोऽस्ति शक्तिर्दिनकरकिरणाग्रतः स्थातुम्?" -बृहद्वृत्ति, पत्र ३६१ ५. बृहवृत्ति, पत्र २६२-३६३
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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