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बारहवाँ अध्ययन : हरिकेशीय
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तिन्दुयरुक्खवासी-इस विषय में परम्परागत मत यह है कि तिन्दुक (तेंदू) का एक वन था, उसके बीच में एक बड़ा तिन्दुक-वृक्ष था, जिसमें वह यक्ष रहता था। उसी वृक्ष के नीचे एक चैत्य था, जिसमें वह महामुनि रह कर साधना करते थे।
धण-पयणपरिग्गहाओ-धन का अर्थ यहां गाय आदि चतुष्पद पशु है, पचन—का अर्थ उपलक्षण से—भोजन पकाना-पकवाना-खरीदवाना, बेचना बिकवाना है। परिग्रह का अर्थ -बृहद्वृत्तिकार ने द्रव्यादि में मूर्छा किया है, जब कि चूर्णिकार ने -स्वर्ण आदि किया है।
परपवित्तस्स -दूसरों-गृहस्थों ने अपने लिए जो प्रवृत्त -निष्पादित -बनाया है। ३
खज्जइ भुजइ : दोनों का अर्थभेद -बृहवृत्ति के अनुसार खाजा आदि तले हुए पदार्थ 'खाद्य' कहलाते हैं और दाल-भात आदि पदार्थ भोज्य । सामान्यतया 'खाद्' और 'भुज्' दोनों धातु समानार्थक हैं, तथापि इसमें अर्थभेद है, जिसे चूर्णिकार ने बताया है -खाद्य खाया जाता है और भोज्य भोगा जाता है। यज्ञशालाधिपति रुद्रदेव
११. उवक्खडं भोयण माहणाणं अत्तट्ठियं सिद्धमिहेगपक्खं।
नऊ वयं एरिसमन्न-पाणं दाहामु तुझं किमिहं ठिओ सि॥ [११] (रुद्रदेव-) यह भोजन (केवल) ब्राह्मणों के अपने लिए तैयार किया गया है। यह एकपक्षीय है। अत: ऐसा (यज्ञार्थनिष्पन्न) अन्न-पान हम तुझे नहीं देंगे। (फिर) यहाँ क्यों खड़ा है?
१२. थलेसु बीयाइ ववन्ति कासगा तहेव निन्नेसु य आससाए।
___ एयाए सद्धाए दलाह मज्झं आराहए पुण्णमिणं खु खेत्तं॥ [१२] (भिक्षुशरीरस्थ यक्ष -) अच्छी उपज की आकांक्षा से जैसे कृषक स्थलों (उच्च भूभागों) में बीज बोते हैं, वैसे ही निम्न भूभागों में भी बोते हैं। कृषक की इस श्रद्धा (दृष्टि) से मुझे दान दो। यही (मैं ही) पुण्यक्षेत्र हूं। इसी की आराधना करो।
१३. खेत्ताणि अम्हं विइयाणि लोए जहिं पकिण्णा विरुहन्ति पुण्णा।
. जे माहणा जाइ-विज्जोववेया ताई तु खेत्ताई सुपेसलाई॥ [१३] (रुद्रदेव-) जगत् में ऐसे क्षेत्र हमें विदित (ज्ञात) हैं, जहाँ बोये हुए बीज पूर्णरूप से उग आते हैं। जो ब्राह्मण (ब्राह्मणरूप) जाति और (चतुर्दश) विद्याओं से युक्त हैं, वे ही मनोहर (उत्तम) क्षेत्र हैं; (तेरे सरीखे शूद्रजातीय तथा चतुर्दशविद्यारहित भिक्षु उत्तम क्षेत्र नहीं हैं)। १. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ३५९ (ख) उत्तरा. चूर्णि, पृ. २०४-२०५ २. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ३६० (ख) उत्तरा. चूर्णि, पृ. २०५ ३. बृहद्वृत्ति, पत्र ३६० ४. (क) 'खाद्यते खण्डखाद्यादि, भुज्यते च भक्त-सूपादि।-बृहद्वृत्ति, पत्र ३६०
(ख) उत्तराध्ययनचूर्णि, पृ. २०५