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उत्तराध्ययनसूत्र
हों। इसलिए संकरदूष्य का अर्थ हुआ -उकरड़ी से उठा कर लाया हुआ चिथड़ा। मुनि के वस्त्र भी वैसे थे, जीर्ण, शीर्ण और निकृष्ट, फैंकने योग्य । इसलिए मुनि को उन्होंने कहा था –गले में संकरदूष्य पहने हुए। कन्धा कण्ठ का पाश्ववर्ती भाग है, इसलिए यहाँ कन्धे के लिए 'कण्ठ' शब्द का प्रयोग हुआ है। आशय यह है कि ऐसे वस्त्र मुनि के कन्धे पर डले हुए थे। जो मुनि अभिग्रहधारी होते हैं, वे अपने वस्त्रों को जहाँ जाते हैं, वहाँ साथ ही रखते हैं, उपाश्रय में छोड़कर नहीं जाते।
विगराले-विकराल-हरिकेशबल मुनि के दांत आगे बढ़े हुए थे, इस कारण उनका चेहरा विकराल लगता था। यक्ष के द्वारा मुनि का परिचयात्मक उत्तर
८. जक्खो तहिं तिन्दुयरुक्खवासी अणुकम्पओ तस्स महामुणिस्स।
पच्छायइत्ता नियगं सरीरं इमाइं वयणाइमुदाहरित्था-॥ [८] उस समय उस महामुनि के प्रति अनुकम्पाभाव रखने वाले तिन्दुकवृक्षवासी यक्ष ने अपने शरीर को छिपाकर (महामुनि के शरीर में प्रविष्ट होकर) ऐसे वचन कहे -
९. समणो अहं संजओ बम्भयारी विरओ धणपयणपरिग्गहाओ।
परप्पवित्तस्स उ भिक्खकाले अन्नस्स अट्ठा इहमागओ मि॥ [९] मैं श्रमण हूं, मैं संयत (संयम-निष्ठ) हूं, मैं ब्रह्मचारी हूं, धन, पचन (भोजनादि पकाने) और परिग्रह से विरत (निवृत्त) हूं, मैं भिक्षाकाल में दूसरों (गृहस्थों) के द्वारा (अपने लिए ) निष्पन्न आहार पाने के लिए यहां (यज्ञपाड़े में) आया हूँ।
१०. वियरिजइ खजइ भुजई य अन्नं पभूयं भवयाणमेयं ।
जाणाहि मे जायणजीविणु त्ति सेसावसेसं लभऊ तवस्सी॥ [१०] यहाँ यह बहुत-सा अन्न बांटा जा रहा है, (बहुत-सा) खाया जा रहा है और (भातदाल आदि भोजन) उपभोग में लाया जा रहा है। आपको यह ज्ञात होना चाहिए कि मैं याचनाजीवी (भिक्षाजीवी) हूँ। अतः भोजन के बाद बचे हुए (शेष) भोजन में से अवशिष्ट भोजन इस तपस्वी को भी मिल जाए।
विवेचन - अणुकंपओ- जातिमदलिप्त ब्राह्मणों ने महामुनि का उपहास एवं अपमान किया, फिर भी प्रशमपरायण महामुनि कुछ भी नहीं बोले, वे शान्त रहे । किन्तु तिन्दुकवृक्षवासी यक्ष मुनि की तपस्या से प्रभावित होकर उनका सेवक बन गया था। उसी का विशेषण है -अनुकम्पक -मुनि के अनुकूल चेष्टाप्रवृत्ति करने वाला। १. बृहवृत्ति, पत्र ३५९ २. वही, पत्र ३५८ ३. (क) बृहवृत्ति, पत्र ३५९ (ख) उत्तरा. चूर्णि, पृ. २०४-२०५
अणकंपओ त्ति-अनु शब्दोऽनुरूपार्थे ततश्चानुरूपं कम्पते -चेष्टते इत्यनुकम्पकः।