________________
बारहवाँ अध्ययन : हरिकेशीय
१८१
[७] 'अरे अदर्शनीय! तू कौन है रे?, यहाँ तू किस आशा से आया है? जीर्ण और मैले वस्त्र होने से अधनंगे तथा धूल के कारण पिशाच जैसे शरीर वाले! चल, हट जा यहाँ से! यहाँ क्यों खड़ा है?'
विवेचन -पंतोवहिउवगरणं-प्रान्त शब्द यहाँ जीर्ण और मलिन होने से तुच्छ–असार अर्थ में है, यह उपधि और उपकरण का विशेषण है। यों तो उपधि और उपकरण ये दोनों धर्मसाधना के लिए उपकारी होने से एकार्थक हैं, तथापि उपधि का अर्थ यहाँ नित्योपयोगी वस्त्रपात्रादि रूप उपकरण -औधिकोपधि है और उपकरण का अर्थ -संयमोपकारक रजोहरण, प्रमाणनिका आदि औपग्रहकोपधि है । ।
__ अणारिया-अनार्य शब्द मूलतः निम्न जाति, कुल, क्षेत्र, कर्म, शिल्प आदि से सम्बन्धित था, किन्तु बाद में यह निम्न-असभ्य-आचरणसूचक बन गया। यहाँ अनार्य शब्द असभ्य, उज्जड, अनाड़ी अथवा साधु पुरुषों के निन्दक-अशिष्ट अर्थ में प्रयुक्त है। - आचरणहीन ब्राह्मण -प्रस्तुत गाथा (सं. ५) में आचरणहीन ब्राह्मणों का स्वरूप बताया गया है, उनके ५ विशेषण बताये गए हैं -जातिमद से मत्त, हिंसक, अजितेन्द्रिय, अब्रह्मचारी और बाल। बृहद्वृत्तिकार के अनुसार 'हम ब्राह्मण हैं, उच्च जातीय हैं, श्रेष्ठ हैं, इस प्रकार के जातिमद से वे मत्त थे, यज्ञों में पशुवध करने के कारण हिंसापरायण थे, पांचों इन्द्रियों को वश में नहीं किये हुए थे, वे पुत्रोत्पत्ति के लिए मैथुनसेवन (अब्रह्माचरण) को धर्म मानते थे तथा बालक्रीड़ा की तरह लौकिक-कामनावश अग्निहोत्रादि में प्रवृत्त होने से अज्ञानी (अतत्त्वज्ञ) थे।३
ओमचेलए -(१) चूर्णि के अनुसार -अचेल अथवा थोड़े से जीर्ण-शीर्ण तुच्छ वस्त्रों वाला, (२) बृहवृत्ति के अनुसार -हलके, गंदे एवं जीर्ण होने से असार वस्त्रों वाला।
___पंसुपिसाभूए -लौकिक व्यवहार में पिशाच वह माना जाता है, जिसके दाढ़ी-मूंछ, नख और रोएँ लम्बे एवं बड़े हुए हों, शरीर धूल से भरा हो; मुनि भी शरीर के प्रति निरपेक्ष एवं धूल से भरे होने के कारण पिशाच (भूत) जैसे लगते थे। ___'संकरदूसं परिहरिय' -संकर का अर्थ है -तृण, धूल, राख, गोबर, कोयले आदि मिले हुए कूड़ेकर्कट का ढेर, जिसे उकरड़ी कहते हैं। वहाँ लोग उन्हीं वस्त्रों को डालते हैं, जो अनुपयोगी एवं अत्यन्त रद्दी १. (क) 'प्रान्तः-जीर्ण-मलिनत्वादिभिरसारम्।'-बृहद्वृत्ति, पत्र ३५८ (ख) उपधिः-नित्योपयोगी वस्त्रपात्रादिरूप औधिकोपधिः, उपकरणं-संयमोपकारकं रजोहरणप्रमार्जिकादिकम् -
औपग्रहिकोपधिश्च।-उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका, भा. २, पृ. ५७६ २. (क) बृहद्वति-पत्र ३५८ (ख) उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका, भा. २, पृ. ५७६ ३. बृहद्वृत्ति, पत्र ३५८
धर्मार्थं पत्रकामस्य स्वदारेष्वधिकारिणः। ऋतुकाले विधानेन तत्र दोषो न विद्यते ॥ अपुत्रस्य गति स्ति, स्वर्गो नैव च नैव च।
तस्मात् पुत्रमुखं दृष्ट्वा पश्चात् स्वर्ग गमिष्यति॥ उक्तं च- अग्निहोत्रादिकं कर्म बालक्रीडेति लक्ष्यते॥ ४. (क) उत्तरा. चूर्णि, पृ. २०४ (ख) बृहवृत्ति, पत्र. ३५९ ५. बृहद्वृत्ति, पत्र ३५९