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उत्तराध्ययनसूत्र
चाण्डालकुलोत्पन्न होते हुए भी श्रेष्ठ गुणों से सम्पन्न - यहाँ शास्त्रकार का आशय यह है कि किसी जाति या कुल में जन्म लेने मात्र से कोई व्यक्ति उच्च या नीच नहीं हो जाता, किन्तु गुण और अवगुण के कारण ही व्यक्ति की उच्चता-नीचता प्रकट होती है। हरिकेशबल चाण्डालकुल में जन्मा था, जिस कुल के लोग कुत्ते का मांस भक्षण करने वाले, शव के वस्त्रों का उपयोग करने वाले, आकृति से भयंकर, प्रकृति से कठोर एवं असंस्कारी होते हैं । उस असंस्कारी घृणित कुल में जन्म लेकर भी हरिकेशबल पूर्वपुण्योदय से श्रेष्ठ गुणों के धारक, जितेन्द्रिय और भिक्षाजीवी मुनि बन गए थे । वे कैसे उत्तमगुणधारी मुनि बने ? इसकी पूर्वकथा अध्ययनसार में दी गई है।
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वे प्रतिज्ञा से ही नहीं, आचार से भी मुनि थे- दूसरी और तीसरी गाथा में बताया गया है कि वे केवल प्रतिज्ञा से या नाममात्र से ही मुनि नहीं थे, अपितु मुनिधर्म के आचार से युक्त थे । यथा - वे पांच समिति और तीन गुप्तियों का पालन पूर्ण सावधानीपूर्वक करते थे, जितेन्द्रिय थे, पंचमहाव्रतरूप संयम में पुरुषार्थी थे, सम्यक् समाधिसम्पन्न थे और निर्दोष भिक्षा पर निर्वाह करने वाले थे । २
जणवाडं-यज्ञवाड या यज्ञपाट । यज्ञवाड का अर्थ यज्ञ करने वालों का मोहल्ला, पाड़ा, अथवा बाड़ा प्रतीत होता है। कई आधुनिक टीकाकार 'यज्ञमण्डप' अर्थ करते हैं । ३
मुनि को देख कर ब्राह्मणों द्वारा अवज्ञा एवं उपहास
४.
तं पासिऊणमेज्जन्तं तवेण परिसोसियं । पन्तोवहिउवगरणं उवहसन्ति अणारिया ॥
[५] तप से सूखे हुए शरीर वाले तथा प्रान्त ( जीर्ण एवं मलिन) उपधि एवं उपकरण वाले उस मुनि को आते देख कर (वे) अनार्य (उनका उपहास करने लगे ।
जाईमयपडिद्धा हिंसगा अजिइन्दिया ।
अबम्भचारिणो बाला इमं वयणमब्बवी - ॥
[५] (उन) जातिमद से प्रतिस्तब्ध - गर्वित, हिंसक, अजितेन्द्रिय, अब्रह्मचारी एवं अज्ञानी लोगों ने
इस प्रकार कहा
६.
कयरे आगच्छइ दित्तरूवे काले विगराले फोक्कनासे । ओमचेलए पंसुपिसायभूए संकरसं परिहरिय कण्ठे ॥
[६] बीभत्स रूप वाला, काला-कलूटा, विकराल, बेडौल (आगे से मोटी) नाक वाला, अल्प एवं मलिन वस्त्र वाला, धूलि - धूसरित शरीर होने से भूत-सा दिखाई देने वाला, (और) गले में संकरदूष्य (कूड़े के ढेर से उठा कर लाये हुए जीर्ण एवं मलिन वस्त्र - सा ) धारण किये हुए यह कौन आ रहा है? करे तुमं इय अदंसणिज्जे काए व आसा इहमागओ सि । ओमचेलगा पुंसपिसायभूया गच्छ क्खलाहि किमिह ठिओसि ? ॥
७.
१. बृहद्वृत्ति, पत्र ३५७
२. वही, पत्र ३५७
३. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ३५८ (ख) उत्तरा (मुनि नथमलजी) अनुवाद, पृ. १४३