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________________ समीक्षात्मक अध्ययन / २७ कितने ही विज्ञों का यह भी मानना है कि कल्पसूत्र के अनुसार उत्तराध्ययन की प्ररूपणा भगवान् महावीर ने अपने निर्वाण से पूर्व पावापुरी में की थी।४५ इससे यह सिद्ध है कि भगवान् के द्वारा यह प्ररूपित है, इसलिए इसकी परिगणना अङ्ग - साहित्य में होनी चाहिए। उत्तराध्ययनसूत्र की अन्तिम गाथा को कितने ही टीकाकार इसी आशय को व्यक्त करने वाली मानते हैं—'उत्तराध्ययन का कथन करते हुए भगवान् महावीर परिनिर्वाण को प्राप्त हुए ।' यह प्रश्न काफी गम्भीर है। इसका सहज रूप से समाधान होना कठिन है । तथापि इतना ही कहा जा सकता है कि उत्तराध्ययन के कितने ही अध्ययनों की भगवान् महावीर ने प्ररूपणा की थी और कितने ही अध्ययन बाद में स्थविरों के द्वारा संकलित हुए। उदाहरण के रूप में – केशी - गौतमीय अध्ययन में श्रमण भगवान् महावीर का अत्यन्त श्रद्धा के साथ उल्लेख हुआ है। स्वयं भगवान् महावीर अपने ही मुखारविन्द से अपनी प्रशंसा कैसे करते? उनतीसवें अध्ययन में प्रश्नोत्तर शैली है, जो परिनिर्वाण के समय सम्भव नहीं है, क्योंकि कल्पसूत्र में उत्तराध्ययन को अपृष्ठव्याकरण अर्थात् बिना किसी से पूछे कथन किया हुआ शास्त्र कहा है। कितने ही आधुनिक चिन्तकों का यह भी अभिमत है कि उत्तराध्ययन के पहले के अठारह अध्ययन प्राचीन हैं और उसके बाद के अठारह अध्ययन अर्वाचीन हैं किन्तु अपने मन्तव्य को सिद्ध करने के लिए उन्होंने प्रमाण नहीं दिये हैं। कितने ही विद्वान् यह भी मानते हैं कि अठारह अध्ययन तो अर्वाचीन नहीं हैं। हाँ, उनमें से कुछ अर्वाचीन हो सकते हैं। जैसे— इकतीसवें अध्ययन में आचारांग सूत्रकृतांग आदि प्राचीन नामों के साथ दशाश्रुतस्कन्ध, बृहत्कल्प, व्यवहार और निशीथ जैसे अर्वाचीन आगमों के नाम भी मिलते हैं। ४६ जो श्रुतस्कन्ध केवली भद्रबाहु द्वारा निर्यूढ या कृत हैं । ४७ भद्रबाहु का समय वीरनिर्वाण की दूसरी शती है, इसलिए प्रस्तुत अध्ययन की रचना भद्रबाहु के पश्चात् होनी चाहिए। अन्तकृद्दशा आदि प्राचीन आगमसाहित्य में श्रमण- श्रमणियों के चौदह पूर्व, ग्यारह अंग या बारह अंगों के अध्ययन का वर्णन मिलता है। अंगबाह्य या प्रकीर्णक सूत्र के अध्ययन का वर्णन उपलब्ध नहीं होता। किन्तु उत्तराध्ययन के अट्ठाईसवें अध्ययन में अंग और अंगबाह्य इन दो प्राचीन विभागों के अतिरिक्त ग्यारह " ४५. कल्पसूत्र ४६. तेवीसइ सूयगडे रूवाहिएसु सुरेसु अ । जे भिक्खु जपई निष्यं से न अच्छइ मण्डले । पणवीसभावणाहिं उद्देसेसु दसाइणं । जे भिक्खू जयई निच्च से न अच्छइ मण्डले । अणगारगुणेहिं च पकप्पम्मि तहेव च। जे भिक्खू जयई निच्चं से न अच्छइ मण्डले ॥ ४७. (क) वंदामि भद्रबाहु पाईनं चरिमसवलसुवनाणिं । - उत्तरा ३१ / १६-१८ सुत्तस्स कारणमिसि दसासु कप्पे व ववहारे ॥ दशा तस्कन्धनियुक्ति ग.१ (ख) तेण भगवता आयारपकप्प-दसाकप्प - ववहारा व नवमपुव्वनीसंदभूता निज्जूढा । — पंचकल्पभाष्य, गा. २३ चूर्णि - ४८. (क) सामाइयमायाई एक्कारसअंगाई अहिज अन्तकृत, प्रथम वर्ग । (ख) बारसंगी - अन्तकृतदशा, ४ वर्ग, अध्य. १ (ग) सामाइयमाइयाई चोदवाई अहिब चोद्दसपुव्वाई । अन्तकृतदशा, ३ वर्ग, अध्य. १
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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