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________________ उत्तराध्ययन/२६ अन्तिम गाथा है-समग्र सभा धर्मचर्चा से परम संतुष्ट हुई, अतः सन्मार्ग में समुपस्थित उसने भगवान् केशी और गणधर गौतम की स्तुति की कि वे दोनों प्रसन्न रहें। १ उपर्युक्त चर्चा का सारांश यह है कि नियुक्तिकार भद्रबाहु ने उत्तराध्ययन को कर्तृत्व की दृष्टि से चार वर्गों में विभक्त किया है। उसका तात्पर्य इतना ही है कि भगवान् महावीर, कपिल, नमि और केशी-गौतम के उपदेश तथा संवादों को आधार बनाकर इस अध्ययनों की रचना हुई है। इन अध्ययनों के रचयिता कौन हैं? और उन्होंने इन अध्ययनों की रचना कब की? इन प्रश्नों का उत्तर न नियुक्तिकार भद्रबाहु ने दिया, न चूर्णिकार जिनदासगणी महत्तर ने दिया है और न बृहद्वृत्तिकार शान्त्याचार्य ने ही दिया है। आधुनिक अनुसंधानकर्ता विज्ञों का यह मानना है कि वर्तमान में जो उत्तराध्ययन उपलब्ध है, वह किसी एक व्यक्तिविशेष की रचना नहीं है, किन्तु अनेक स्थविर मुनियों की रचनाओं का संकलन है। उत्तराध्ययन के कितने ही अध्ययन भगवान् महावीर द्वारा प्ररूपित हैं तो कितने ही अध्ययन स्थविरों के द्वारा संकलित हैं।२ इसका यह तात्पर्य नहीं है कि उत्तराध्ययन में भगवान् महावीर का धर्मोपदेश नहीं है। उसमें वीतरागवाणी का अपूर्व तेज कभी छिप नहीं सकता। क्रूर काल की काली आंधी भी उसे धुंधला नहीं कर सकती। वह आज भी प्रदीप्त है और साधकों के अन्तर्जीवन को उजागर करता है। आज भी हजारों भव्यात्मा उस पावन उपदेश को धारण कर अपने जीवन को पावन बना रहे हैं। यह पूर्ण रूप से निश्चित है कि देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण तक उत्तराध्ययन छत्तीस अध्ययनों के रूप में संकलित हो चुका था। समवायांगसूत्र में छत्तीस उत्तर अध्ययनों के नाम उल्लिखित हैं। विषयवस्तु की दृष्टि से उत्तराध्ययन के अध्ययन धर्मकथात्मक, उपदेशात्मक, आचारात्मक और सैद्धान्तिक, इन चार भागों में विभक्त किये जा सकते हैं, जैसे (१) धर्मकथात्मक –७, ८, ९, १२, १३, १४, १८, १९, २०, २१, २२, २३, २५ और २७ (२) उपदेशात्मक-१, ३, ४, ५, ६ और १० (३) आचारात्मक -२, ११, १५, १६, १७, २४, २६, ३२ और ३५ (४) सैद्धान्तिक-२८, २९, ३०, ३१, ३३, ३४ और ३६ विक्रम की प्रथम शती में आर्यरक्षित ने आगमों को चार अनुयोगों में विभक्त किया। उसमें उत्तराध्ययन को धर्मकथानुयोग के अन्तर्गत गिना है।४३ उत्तराध्ययन में धर्मकथानुयोग की प्रधानता होने से जिनदासगणी महत्तर ने उसे धर्मकथानुयोग माना है, पर आचारात्मक अध्ययनों को चरणकरणानुयोग में और सैद्धान्तिक अध्ययनों को द्रव्यानुयोग में सहज रूप से ले सकते हैं। उत्तराध्ययन का जो वर्तमान रूप है, उसमें अनेक अनुयोग मिले हुए हैं। ४१. तोसिया परिसा सव्वा, सम्मग्गं समुवट्ठिया। संथुया ते पसीयन्तु भयवं केसिगोयमे ॥ -उत्तराध्ययन २३/८९ ४२. (क) देखिए- दसवेआलियं तह उत्तरायणं की भूमिका, आचार्य तुलसी (ख) उत्तराध्ययनसूत्र की भूमिका, कवि अमरमुनि जी ४३. अत्र धम्माणुयोगेनाधिकारः। -उत्तराध्ययनचूर्णि, पृष्ठ ९ ४४. उत्तराध्ययनचूर्णि, पृष्ठ ९
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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