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________________ १७४ उत्तराध्ययनसूत्र णक्खत्तपरिवारिए-अश्विनी, भरणी आदि २७ नक्षत्रों के परिवार से युक्त। २७ नक्षत्र ये हैं-(१) अश्विनी, (२) भरणी, (३) कृत्तिका, (४) रोहिणी, (५) मृगशिरा, (६) आर्द्रा, (७) पुनर्वसु, (८) पुष्य, (९) अश्लेषा, (१०) मघा, (११) पूर्वाफाल्गुनी, (१२) उत्तराफाल्गुनी, (१३) हस्त, (१४) चित्रा, (१५) स्वाति, (१६) विशाखा, (१७) अनुराधा, (१८) ज्येष्ठा, (१९) मूल, (२०) पूर्वाषाढ़ा, (२१) उत्तराषाढ़ा, (२२) श्रवण, (२३) धनिष्ठा, (२४) शतभिषक्. (२५) पूर्वाभाद्रपदा, (२६) उत्तराभाद्रपदा और (२७) रेवती। सामाइयाणं कोट्ठागारे-सामाजिक-कोष्ठागार-समाज का अर्थ है-समूह । सामाजिक का अर्थ हैसमूहवृत्ति (सहकारीवृत्ति) वाले लोग, उनके कोष्ठागार अर्थात् विविध धान्यों के कोठार। प्राचीन काल में भी कृषकों या व्यापारियों के सामूहिक अन्नभण्डार (गोदाम) होते थे, जिनमें नाना प्रकार के अनाज रखे जाते थे। चोर, अग्नि एवं चूहों आदि से बचाने के लिए पहरेदारों को नियुक्त करके उनकी पूर्णतः सुरक्षा की जाती थी। जंबू नाम सुदंसणा, अणाढियस्स देवस्स-अणाढिय-अनादृतदेव, जम्बूद्वीप का अधिपति व्यन्तरजाति का देव है। सुदर्शना नामक जम्बूवृक्ष जम्बूद्वीप के अधिपति अनादृत नामक देव का आश्रय (निवास) स्थानरूप है, उसके फल अमृततुल्य हैं। इसलिए वह सभी वृक्षों में श्रेष्ठ माना जाता है। सीया नीलवंतपवहा : शीता नीलवत्प्रवहा-मेरु पर्वत के उत्तर में नीलवान् पर्वत है। इसी पर्वत से शीता नदी प्रवाहित होती है, जो सबसे बड़ी नदी है और अनेक जलाशयों से व्याप्त है।३ सुमहं मंदरे गिरी, नाणोसहिपज्जलिए-चूर्णि के अनुसार मंदर पर्वत स्थिर और सबसे ऊँचा पर्वत है। यहीं से दिशाओं का प्रारम्भ होता है। उसे यहाँ नाना प्रकार की ओषधियों से प्रज्वलित कहा गया है। वहाँ कई ओषधियाँ ऐसी हैं, जो जाज्वल्यमान प्रकाश करती हैं, उनके योग से मन्दर-पर्वत भी प्रज्वलित होता बहुश्रुतता का फल एवं बहुश्रुतता प्राप्ति का उपदेश ३१. समुद्दगम्भीरसमा दुरासया अचक्किया केणइ दुप्पहंसया। सुयस्स पुण्णा विउलस्स ताइणो खवित्त कम्मं गइमुत्तमं गया। [३१] सागर के समान गम्भीर, दुरासद (जिनका पराभूत होना दुष्कर है), (परीषहादि से) अविचलित, परवादियों द्वारा अत्रासित अर्थात् अजेय, विपुल श्रुतज्ञान से परिपूर्ण और त्राता (षट्कायरक्षक)ऐसे बहुश्रुत मुनि कर्मों का सर्वथा क्षय करके उत्तमगति (मोक्ष) में पहुंचे। १. (क) जाव मझण्णो ताव उद्वेति, ताव ते तेयलेसा वद्धति, पच्छा परिहाति, अहवा उत्तिटुंतो सोमो भवति, हेमंतियबालसूरिओ। (ख) बृहवृत्ति, पत्र ३५१ (ग) होडाचक्र, २७ नक्षत्रों के नाम २. बृहद्वृत्ति, पत्र ३५१ ३. (क) वहीं, पत्र ३५२ : शीत-शीतानाम्नी, नीलवान्–मेरोरुत्तरस्यां दिशि वर्षधरपर्वतस्ततः ..... प्रवहति..... नीलवत्प्रवहा। (ख) सीता सव्वणदीण महल्ला, बहूहिं च जलासतेहिं च आइणा। -उत्त. चूर्णि, पृ. २०० ४. (क) 'जहा मंदरो थिरो उस्सिओ, दिसाओ य अत्थ पवत्तंति।' -उत्त. चूर्णि, पृ. २०० (ख) बृहवृत्ति, पत्र ३५२
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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