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ग्यारहवाँ अध्ययन : बहुश्रुतपूजा कन्धा परिपुष्ट होने पर उसके दूसरे सभी अंगोपांगों की परिपुष्टता उपलक्षित होती है ।१.
उदग्गे मियाण पवरे-उदग्र : दो अर्थ -(१) उत्कट, (२) अथवा उदग्र वय-पूर्ण युवावस्था को प्राप्त, मियाण पवरे का अर्थ है-वन्य पशुओं में श्रेष्ठ ।
चाउरते-चातुरन्त : दो अर्थ-(१) जिसके राज्य में एक दिगन्त में हिमवान् पर्वत और शेष तीन दिगन्तों में समुद्र हो, वह चातुरन्त होता है, अथवा (२) हाथी, घोड़ा, रथ और पैदल इन चारों सेनाओं के द्वारा शत्रु का अन्त करने वाला चातुरन्त है।
चक्कवट्टी : चक्रवर्ती-षट्खण्डों का अधिपति चक्रवर्ती कहलाता है।
चउद्दसरयणाहिवई-चतुर्दशरत्नाधिपति-चक्रवर्ती चौदह रत्नों का स्वामी होता है। चक्रवर्ती के १४ रत्न ये हैं-(१) सेनापति, (२) गाथापति, (३) पुरोहित, (४) गज, (५) अश्व, (६) बढ़ई, (७) स्त्री, (८) चक्र, (९) छत्र, (१०) चर्म, (११) मणि, (१२) काकिणी, (१३) खड्ग और (१४) दण्ड।
सहस्सक्खे-सहस्राक्ष : दो भावार्थ-(१) इन्द्र के पांच सौ देव मंत्री होते हैं। राजा मंत्री की आँखों से देखता है, अर्थात्-इन्द्र उनकी दृष्टि से अपनी नीति निर्धारित करता है, इसलिए वह सहस्राक्ष कहलाता है। (२) जितना हजार आँखों से दीखता है, इन्द्र उससे अधिक अपनी दो आँखों से देख लेता है, इसलिए वह सहस्राक्ष है। यह अर्थ वैसे ही आलंकारिक है, जैसे कि चतुष्कर्ण-चौकन्ना शब्द अधिक सावधान रहने के अर्थ में प्रयुक्त होता है।
___पुरंदरे : भावार्थ-पुराण में इस सम्बन्ध में एक कथा है कि इन्द्र ने शत्रुओं के पुरों का विदारण किया था, इस कारण उसका नाम 'पुरन्दर' पड़ा। ऋग्वेद में दस्युओं अथवा दासों के पुरों को नष्ट करने के कारण 'इन्द्र' को 'पुरन्दर' कहा गया है। वस्तुतः इन्द्र के 'सहस्राक्ष' और 'पुरन्दर' ये दोनों नाम लोकोक्तियों पर आधारित हैं।
उत्तिते दिवायरे-दो अर्थ : (१) उत्थित होता हुआ सूर्य-चूर्णिकार के अनुसार मध्याह्न तक का सूर्य उत्थित होता हुआ माना गया है, उस समय तक सूर्य का तेज (प्रकाश और आतप) बढ़ता है। (२) उगता हुआ सूर्य-बाल सूर्य । वह सौम्य होता है, बाद में तीव्र होता है। १. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ३४९
(ख) हायणं वरिसं, सद्विवरसे परं बलहीणो, अपत्तबलो परेण परिहाति। -उत्तरा. चूर्णि, पृ. १९९ (ग) 'षष्टिहायन:-षष्टिवर्षप्रमाणः तस्य हि एतावत्कालं यावत् प्रतिवर्ष बलोपचयः ततस्तदपचयः, इत्येवमुक्तम्।'
___ -उत्तरा. बृहवृत्ति, पत्र ३४९ २. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ३५०-सेणावइ गाहावइ पुरोहिय, गय तुरंग वड्ढइग इत्थी।
चक्कं छत्तं चम्म मणि, कागिणी खग्ग दंडो य॥ -चतुर्दशरत्नानि। ३. (क) सहस्सक्खेति-पंचमंतिसयाई देवाणं तस्स सहस्सो अक्खीणं, तेसिं णीतिए दिट्ठमिति । अहवा जं सहस्सेण अक्खीणं
दीसति, तं सो दोहि अक्खीहिं अब्भहियतरायं पेच्छति।' -उत्तरा. चूर्णि, पृ.१९९ (ख) लोकोक्त्या च पुारणात् पुरन्दरः। (ग) ऋग्वेद १/१०२/७, १/१०९/८,३/५४/१५, ५/३०/१२,६/१६/१४, २/२०/७