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उत्तराध्ययन सूत्र
जोगवं — योगवान् — योग के ५ अर्थ : विभिन्न सन्दर्भों में – (१) मन, वचन और काया का व्यापार, (२) संयमयोग, (३) अध्ययन में उद्योग, (४) धर्मविषयक प्रशस्त प्रवृत्ति और (५) समाधि । प्रस्तुत प्रसंग में योगवान् का अर्थ है-समाधिमान् अथवा प्रशस्त मन, वचन, काया के योग-व्यापार से युक्त ।' दुहओ वि विराय : व्याख्या - शंख रखा हुआ दूध दोनों प्रकार से सुशोभित होता है- निजगुण से और शंखसम्बन्धी गुण से । दूध स्वयं स्वच्छ होता है, जब वह शंख जैसे स्वच्छ पात्र में रखा जाता है तब और अधिक स्वच्छ प्रतीत होता है। शंख में रखा हुआ दूध न तो खट्टा होता है और न झरता है।
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बहुस्सुए भिक्खू धम्मो कित्ती तहा सुर्य : दो व्याख्याएँ - (१) बहुश्रुत भिक्षु में धर्म, कीर्ति तथा श्रुत अबाधित (सुशोभित) रहते हैं । तात्पर्य यह है कि यों तो धर्म, कीर्ति और श्रुत ये तीनों स्वयं ही निर्मल होने से सुशोभित होते हैं तथापि मिथ्यात्व आदि कालुष्य दूर होने से निर्मलता आदि गुणों से शंखसदृश उज्ज्वल बहुश्रुत के आश्रय में रहे हुए ये गुण (आश्रय के गुणों के कारण) विशेष प्रकार से सुशोभित होते हैं तथा बहुश्रुत में रहे हुए ये धर्मादि गुण मलिनता, विकृति या हानि को प्राप्त नहीं होते - अबाधित रहते हैं । (२) योग्य भिक्षुरूपी भाजन में ज्ञान देने वाले बहुश्रुत को धर्म होता है, उसकी कीर्ति होती है, श्रुत आराधित या अबाधित होता है।
आइण्णे कंथए : आकीर्ण का अर्थ-शील, रूप, बल आदि गुणों से आकीर्ण व्याप्त, जातिमान् । कन्थक- (१) पत्थरों के टुकड़ों से भरे हुए कुप्पों के गिरने की आवाज से जो भयाभीत नहीं होता, (२) जो खड़खड़ाहट से नहीं चौंकता या पर्वतों के विषममार्ग में या विकट युद्धभूमि में जाने से या शस्त्रप्रहार से नहीं हिचकिचाता; ऐसा श्रेष्ठ जाति का घोड़ा । ३
नंदिघोसेणं - नन्दिघोष : दो अर्थ- बारह प्रकार के वाद्यों की एक साथ होने वाली ध्वनि या मंगलपाठकों (बंदिओं) की आशीर्वचनात्मक ध्वनि । बहुश्रुत भी इसी प्रकार जिनप्रवचनरूपी अश्वाश्रित होकर अभिमानी परवादियों के दर्शन से अत्रस्त और उन्हें जीतने में समर्थ होता है। दोनों ओर के अर्थात्-दिन और रात अथवा अगल-बगल में शिष्यों के स्वाध्यायरूपी नन्दिघोष से युक्त होता है।
कुंजरे सद्विहायणे - साठ वर्ष का हाथी । अभिप्राय यह है कि साठ वर्ष की आयु तक हाथी का बल प्रतिवर्ष उत्तरोत्तर बढ़ता जाता है, उसके पश्चात् कम होने लगता है। इसलिए यहाँ हाथी की पूर्ण बलवत्ता बताने के लिए 'षष्टिवर्ष' का उल्लेख किया गया है।
जायखंधे-जातस्कन्ध-जिस वृषभ का कंधा अत्यन्त पुष्ट हो गया हो, वह जातस्कन्ध कहलाता है।
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(क) उत्तरा चूर्णि, पृ. १९८ : 'जोगो मणजोगादि संजमजोगो उज्जोगं पठितव्वते करे ।'
(ख) ‘योजनं योगो-व्यापारः स चेह प्रक्रमाद् धर्मगत एव तद्वान् अतिशायने मतुप् । यद्वा योगः - समाधिः, सोऽस्यास्तीति योगवान् ।' – बृहद्वृत्ति, पत्र ३४७
(ग) 'मोक्खेण जोयणाओ जोगो, सव्वोवि धम्मवावारो।' - योगविंशिका - १
(ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ३४८
(क) उत्तरा चूर्णि, पृ. १९८
(क) उत्तरा चूर्णि, पृ. १९८ (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ३४८
(ग) उत्तरा . प्रियदर्शिनीटीका, भा. २, पृ. ५४०