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________________ ग्यारहवाँ अध्ययन : बहुश्रुतपूजा १७१ [२५] जैसे नक्षत्रों के परिवार से परिवृत नक्षत्रों का अधिपति चन्द्रमा पूर्णमासी को परिपूर्ण होता है, उसी प्रकार बहुश्रुत ( जिज्ञासु साधकों से परिवृत, साधुओं का अधिपति एवं ज्ञानादि सकल कलाओं से परिपूर्ण) होता है। २६. जहा से सामाइयाणं कोट्ठागारे सुरक्खिए । नाणाधन्नपडिपुणे एवं हवइ बहुस्सु ॥ [२६] जैसे सामाजिकों (कृषकवर्ग या व्यवसायिगण ) का कोष्ठागार (कोठार) सुरक्षित और अनेक प्रकार के धान्यों से परिपूर्ण होता है, वैसे ही बहुश्रुत (गच्छवासी जनों के लिए सुरक्षित ज्ञानभण्डार की तरह अंग, उपांग, मूल, छेद आदि विविध श्रुतज्ञानविशेष से परिपूर्ण) होता है । २७. जहा सा दुमाण पवरा जम्बू नाम सुदंसणा । अणाढियस्स देवस्स एवं हवइ बहुस्सुए ॥ [२७] जिस प्रकार 'अनादृत' देव का 'सुदर्शन' नामक जम्बूवृक्ष, सब वृक्षों में श्रेष्ठ होता है, उसी प्रकार बहुश्रुत (अमृतफलतुल्य श्रुतज्ञानयुक्त, देवपूज्य एवं समस्त साधुओं में श्रेष्ठ) होता है । २८. जहा सा नईण पवरा सलिला सागरंगमा । सीया नीलवन्तपवहा एवं हवइ बहुस्सुए ॥ [२८] जैसे नीलवान् वर्षधर पर्वत से निःसृत जलप्रवाह से परिपूर्ण एवं समुद्रगामिनी शीतानदी सब नदियों में श्रेष्ठ है, उसी प्रकार बहुश्रुत भी ( वीर-हिमाचल से निःसृत, निर्मलश्रुतज्ञान रूप जल से पूर्ण मोक्षरूप- महासमुद्रगामी एवं समस्त श्रुतज्ञानी साधुओं में श्रेष्ठ) होता है। २९. जहा से नगाण पवरे सुमहं मन्दरे गिरी | नाणोसहिपज्जलिए एवं हवइ बहुस्सुए ॥ [२९] जिस प्रकार नाना प्रकार की ओषधियों से प्रदीप्त, अतिमहान्, मन्दर (मेरु) पर्वत सब पर्वतों में श्रेष्ठ है, उसी प्रकार बहुश्रुत भी ( श्रुतमाहात्म्य के कारण स्थिर, आमर्षौषधि आदि लब्धियों से प्रदीप्त एवं समस्त साधुओं में) श्रेष्ठ होता है । ३०. जहा से सयंभूरमणे उदही अक्खओदए । नाणारयणपडिपुणे एवं हवइ बहुस्सुए ॥ [३०] जिस प्रकार अक्षयजलनिधि स्वयम्भूरमण समुद्र नानाविध रत्नों से परिपूर्ण होता है, उसी प्रकार बहुश्रुत भी (अक्षय सम्यग्ज्ञानरूपी जलनिधि अर्थात् नानाविध ज्ञानादि रत्नों से परिपूर्ण) होता है। विवेचन-वसे गुरुकुले निच्चं - अर्थात् गुरुओं- आचार्यों के कुल - गच्छ में रहे। यहाँ 'गुरुकुल में रहे ' का भावार्थ है- गुरु की आज्ञा में रहे। कहा भी है- 'गुरुकुल में रहने से साधक ज्ञान का भागी होता है, दर्शन और चारित्र में स्थिरतर होता है, वे धन्य हैं, जो जीवनपर्यन्त गुरुकुल नहीं छोड़ते । १ १. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ३४७ (ख) उत्तरा चूर्णि, पृष्ठ १९८ : 'णाणस्स होइ भागी, थिरयरओ दंसणे चरिते य धन्ना आवकहाए, गुरुकुलवासं न मुंचति ॥'
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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