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ग्यारहवाँ अध्ययन : बहुश्रुतपूजा
३२. तम्हा सुयमहिट्ठिज्जा उत्तमट्ठगवेसए । जेणपाणं परं चेव सिद्धिं संपाउणेज्जासि ॥
-त्ति बेमि ।
[३२] (बहुश्रुतता मुक्ति प्राप्त कराने वाली है) इसलिए उत्तमार्थ (मोक्ष - पुरुषार्थ) का अन्वेषक श्रुत (आगम) का (अध्ययन - श्रवण- चिन्तनादि के द्वारा) आश्रय ले, जिससे ( श्रुत के आश्रय से) वह स्वयं को और दूसरे साधकों को भी सिद्धि (मुक्ति) प्राप्त करा सके। ऐसा मैं कहता हूँ ।
विवेचन - समुद्दगंभीरसमा - गम्भीरसमुद्रसम - गहरे समुद्र के समान जो बहुश्रुत अध्यात्मतत्त्व में गहरे उतरे हुए हैं।
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दुरासया- दुष्पराजेय ।
अचक्किया- अचक्रिता : दो अर्थ - ( १ ) परीषहादि से अचक्रित - अविचलित, अथवा (२) परवादियों अत्रासित-निर्भय ।
उत्तमं गई गया- उत्तम-प्रधान गति - मोक्ष को प्राप्त हुए ।
उत्तमट्ठगवेसए- उत्तम अर्थ- प्रयोजन या पुरुषार्थ अर्थात् मोक्ष का अन्वेषक ।
॥ बहुश्रुत-पूजाः ग्यारहवाँ अध्ययन समाप्त ॥
१. बृहद्वृत्ति, पत्र ३५३.
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