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________________ १६८ उत्तराध्ययनसूत्र पीछे चलता है, गुरु के स्थान और आसन से उसका स्थान और आसन नीचा होता है। वह नीचे झुककर गुरुचरणों में वन्दन करता है और नम्र रह कर हाथ जोड़ता है। अचवले-अचपल : दो अर्थ-(१) प्रारम्भ किये हुए कार्य के प्रति स्थिर । अथवा (२) चार प्रकार की चपलता से रहित (१) गतिचपल-उतावला चलने वाला, (२) स्थानचपल-जो बैठा-बैठा भी हाथपैर हिलाता रहता है, (३) भाषाचपल-जो बोलने में चपल हो। भाषाचपल भी चार प्रकार के होते हैंअसत्प्रलापी, असभ्यप्रलापी, असमीक्ष्यप्रलापी और अदेशकालप्रलापी। और (४) भावचपल-प्रारम्भ किये हुए सूत्र या अर्थ को पूरा किये विना ही जो दूसरे कार्य में लग जाता है, या अन्य सूत्र, अर्थ का अध्ययन प्रारम्भ कर देता है। अमाई–अमायी : प्रस्तुत प्रसंग में अर्थ—मनोज्ञ आहारादि प्राप्त करके गुरु आदि से छिपाना माया है। जो इस प्रकार की माया नहीं करता, वह अमायी है। _____ अकुऊहले : दो अर्थ-(१) जो इन्द्रियों के विषयों और चामत्कारिक ऐन्द्रजालिक विद्याओं, जादूटोना आदि को पापस्थान जान कर उनके प्रति अनुत्सुक रहता है, (२) जो साधक नाटक, तमाशा, इन्द्रजाल, जादू आदि खेल-तमाशों को देखने के लिए अनुत्सुक हो। अप्पं चाऽहिक्खिवई : दो व्याख्याएं—यहाँ अल्प शब्द के दो अर्थ सूचित किये गए हैं-(१) थोड़ा और (२) अभाव। प्रथम के अनुसार अर्थ होगा-(१) ऐसे तो वह किसी का तिरस्कार नहीं करता, किन्तु किसी अयोग्य एवं अनुत्साही व्यक्ति को धर्म में प्रेरित करते समय उसका थोड़ा तिरस्कार करता है, (२) दूसरे के अनुसार अर्थ होगा-जो किसी का तिरस्कार नहीं करता। रहे कल्लाण भासइ–कृतज्ञ व्यक्ति अपकारी (अप्रिय मित्र) के एक गुण को सामने रख कर उसके सौ दोषों को भुला देते हैं, जब कि कृतघ्न व्यक्ति एक दोष को सामने रख कर सौ गुणों को भुला देते हैं। अतः सुविनीत साधक न केवल मित्र के प्रति किञ्चित् अपराध होने पर कुपित नहीं होते, अमित्र-अपकारी मित्र के भी पूर्वकृत किसी एक सुकृत का स्मरण करके उसके परोक्ष में भी उसका गुणगान करते हैं। ___अभिजाइए-अभिजातिक-कुलीन-अभिजाति का अर्थ-कुलीनता है। जो कुलीन होता है, वह लिये हुए भार (दायित्व) को निभाता है। ____ हिरिमं-ह्रीमान्–लजावान्-लज्जा सुविनीत का एक विशिष्ट गुण है। उसकी आँखों में शर्म होती है। लज्जावान् साधक कदाचित् कलुषित अध्यवसाय (परिणाम) आ जाने पर भी अनुचित कार्य करने में लज्जित होता है। १. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ३४६ (ख) दशवैकालिक, ९/ २/ १७ २. अचपल:-नाऽऽरब्धकार्य प्रति अस्थिरः, अथवाऽचपलो गति-स्थान-भाषा-भावभेदतश्चतुर्धा.....। बृहद्वृत्ति, पत्र ३४७ ३. (क) वही, पत्र ३४७ (ख) उत्तरा. चूर्णि, पृ. १९७ ४. कल्याणं भाषते, इदमुक्तं भवति-मित्रमिति यः प्रतिपन्नः, स यद्यप्यपकृतिशतानि विधत्ते, तथाऽप्येकमपि सुकृत-मनुस्मरन् न रहस्यपि तद्दोषमुदीरयति। तथा चाह'एकसुकृतेन दुष्कृतशतानि, ये नाशयन्ति ते धन्याः । न त्वेकदोषजनितो येषां कोपः, स च कृतघ्नः।-बृहद्वृत्ति, पत्र ३
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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