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ग्यारहवाँ अध्ययन : बहुश्रुतपूजा
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विवेचन–'अभिक्खणं कोही'-जो बार-बार क्रोध करता है, या अभिक्षण-क्षण-क्षण में क्रोध करता है, किसी कारण से या अकारण क्रोध करता ही रहता है।
पबंधं च पकुव्वइ : दो व्याख्याएँ-(१) प्रबन्ध का अर्थ है-अविच्छिन्न रूप से (लगातार) प्रवर्तन । जो अविच्छिन्नरूप से उत्कट क्रोध करता है, अर्थात्-एक वार कुपित होने पर अनेक वार समझाने, सान्त्वना देने पर भी उपशान्त नहीं होता। (२) विकथा आदि में निरन्तर रूप से प्रवृत्त रहता है।
मेत्तिज्जमाणो वमइ-किसी साधक के द्वारा मित्रता का हाथ बढ़ाने पर भी जो ठुकरा देता है, मैत्री को तोड़ देता है, मैत्री करने वाले से किनाराकशी कर लेता है। इसका तात्पर्य एक व्यावहारिक उदाहरण द्वारा बृहवृत्तिकार ने समझाया है। जैसे-कोई साधु पात्र रंगना नहीं जानता; दूसरा साधु उससे कहता है—'मैं आपके पात्र रंग देता हूँ।' किन्तु वह सोचने लगता है कि मैं इससे पात्र रंगाऊंगा तो बदले में मुझे भी इसका कोई काम करना पड़ेगा। अतः प्रत्युपकार के डर से वह कहता है—रहने दीजिए, मुझे आपसे पात्र नहीं रंगवाना है। अथवा कोई व्यक्ति उसका कोई काम कर देता है तो भी कृतघ्नता के कारण उसका उपकार मानने को तैयार नहीं होता।
पावपरिक्खेवी-आचार्य आदि कोई मुनिवर समिति-गुप्ति आदि के पालन में कहीं स्खलित हो गए तो जो दोषदर्शी बन कर उनके उक्त दोष को लेकर उछालता है, उन पर आक्षेप करता है, उन्हें बदनाम करता है। इसे ही पापपरिक्षेपी कहते हैं।
रहे भासइ पावर्ग-अत्यन्त प्रिय मित्र के सामने प्रिय और मधुर बोलता है, किन्तु पीठ पीछे उसकी बुराई करता है कि यह तो अमुक दोष का सेवन करता है। ____ पाइण्णवाई : दो रूप : तीन अर्थ - (१) प्रकीर्णवादी-इधर-उधर की, उटपटांग, असम्बद्ध बातें करने वाला वस्तुतत्त्व का विचार किये विना जो मन में आया सो बक देता है, वह यत्किंचनवादी या प्रकीर्णवादी है। (२) प्रकीर्णवादी वह भी है, जो पात्र-अपात्र की परीक्षा किये विना ही कथञ्चित् प्राप्त श्रुत का रहस्य बता देता है। (३) प्रतिज्ञावादी-जो साधक एकान्तरूप से आग्रहशील होकर प्रतिज्ञापूर्वक बोल देता है कि 'यह ऐसा ही है'।२
अचियत्ते : अप्रीतिकरः-जो देखने पर या बुलाने पर सर्वत्र अप्रीति ही उत्पन्न करता है।
नीयावित्ति-नीचैर्वृत्ति : अर्थ और व्याख्या-बृहद्वृत्ति के अनुसार दो अर्थ-(१) नीचा या नम्रअनुद्धत होकर व्यवहार (वर्तन) करने वाला, (२) शय्या आदि में गुरु से नीचा रहने वाला। जैसे कि दशवैकालिकसूत्र में कहा है
"नीयं सेजं गईं ठाणं, णीयं च आसणाणि य।
णीयं च पायं वंदेजा, णीयं कुज्जा य अंजलिं॥" अर्थात्-विनीत शिष्य अपने गुरु से अपनी शय्या सदा नीची रखता है, चलते समय उनके पीछे१. बृहद्वृत्ति, पत्र ३४६-३४७ . २. (क) बृहवृत्ति, पत्र ३४६ (ख) उत्तरा. चूर्णि, पृ. १९६ (ग) सुखबोधा, १६८