________________
१६६
उत्तराध्ययनसूत्र
[६] चौदह प्रकार से व्यवहार करने वाला अविनीत कहलाता है और वह निर्वाण प्रापत नहीं करता ।
७. अभिक्खणं कोही हवइ पबन्धं च पकुव्वई ।
मेत्तिजमाणो वमइ सुयं लद्धूण मज्जई ॥
८.
९.
•
अवि पावपरिक्खेवी अवि सुप्पियस्सावि मित्तस्स रहे पइण्णवाई दुहिले थद्धे लुद्धे अणिग्गहे । असंविभागी अचियत्ते अविणीए त्ति वुच्चइ ॥
मित्तेसु कुप्पई । भासइ पावगं ॥
[७-८-९] (१) जो बार-बार क्रोध करता है, (२) जो क्रोध को निरन्तर लम्बे समय तक बनाये रखता है, (३) जो मैत्री किये जाने पर भी उसे ठुकरा देता है, (४) जो श्रुत ( शास्त्रज्ञान ) प्राप्त करके अहंकार करता है, (५) जो स्खलनारूप पाप को लेकर ( आचार्य आदि की) निन्दा करता है, (६) जो मित्रों पर भी क्रोध करता है, (७) जो अत्यन्त प्रिय मित्र का भी एकान्त (परोक्ष) में अवर्णवाद बोलता है, (८) जो प्रकीर्णवादी (असम्बद्धभाषी) है, (९) द्रोही है, (१०) अभिमानी है, (११) रसलोलुप है, (१२) जो अजितेन्द्रिय है, (१३) असंविभागी है (साथी साधुओं में आहारादि का विभाग नहीं करता), (१४) और अप्रीति - उत्पादक है।
१०. अह पन्नरसहिं ठाणेहिं सुविणीए त्ति वुच्चई ।
नयावत्ती अचवले अमाई अकुऊहले ॥ ११. अप्पं चाऽहिक्खिवई पबन्धं च न कुव्वई ।
तिजमाणो भयई सुयं लद्धुं न मज्जई ॥ १२. न य पावपरिक्खेवी न य मित्तेसु कुप्पई ।
अप्पियस्सावि मित्तस्स रहे कल्लाण भासई ॥ १३. कलह - डमरवज्जए बुद्धे अभिजाइए । हिरिमं पडिलीणे सुविणीए त्ति वुच्चई ॥
[१०-११-१२-१३] पन्द्रह कारणों से साधक सुविनीत कहलाता है - (१) जो नम्र (नीचा) होकर रहता है, (२) अचपल - (चंचल नहीं) है, (३) जो अमायी ( दम्भी नहीं - निश्छल ) है, (४) जो अकुतूहली ( कौतुक देखने तत्पर नहीं) है, (५) जो किसी का तिरस्कार नहीं करता, (६) जो क्रोध को लम्बे समय तक धारण नहीं किए रहता है, (७) मैत्रीभाव रखने वाले के प्रति कृतज्ञता रखता है, (८) श्रुत (शास्त्रज्ञान) प्राप्त करके मद नहीं करता, (९) स्खलना होने पर जो ( दूसरों की) निन्दा नहीं करता, (१०) जो मित्रों पर कुपित नहीं होता, (११) अप्रिय मित्र का भी एकान्त में गुणानुवाद करता है, (१२) जो वाक्कलह और मारपीट ( हाथापाई ) से दूर रहता है, (१३) जो कुलीन होता है, (१५) जो लज्जाशील होता है और (१५) जो प्रतिसंलीन ( अंगोपांगों का गोपन- कर्त्ता) होता है, ऐसा बुद्धिमान् साधक सुविनीत कहलाता है।