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________________ ग्यारहवाँ अध्ययन : बहुश्रुतपूजा १६९ पडिसंलीणे-प्रतिसंलीन-जो अपने हाथ-पैर आदि अंगोपांगों से या मन और इन्द्रियों से व्यर्थ चेष्टा न करके उन्हें स्थिर करके अपनी आत्मा में संलीन रहता है। बृहवृत्ति के अनुसार इसका अर्थ है-जो साधक गुरु के पास या अन्यत्र भी निष्प्रयोजन इधर-उधर की चेष्टा नहीं करता, नहीं भटकता। बहुश्रुत का स्वरूप और माहात्म्य १४. वसे गुरुकुले निच्चं जोगवं उवहाणवं। ____ पियंकरे पियंवाई से सिक्खं लद्ध मरिहई॥ [१४] जो सदा गुरुकुल में रहता है (अर्थात् सदैव गुरु-आज्ञा में ही चलता है), जो योगवान् (समाधियुक्त या धर्मप्रवृत्तिमान्) होता है, जो उपधान (शास्त्राध्ययन से सम्बन्धित विशिष्ट तप) में निरत रहता है, जो प्रिय करता है और प्रियभाषी है, वह शिक्षा (ग्रहण और आसेवन शिक्षा) प्राप्त करने योग्य होता है (अर्थात् वह बहुश्रुत हो जाता है)। १५. जहा संखम्मि पयं निहियं दुहओ वि विरायइ। एवं बहुस्सुए भिक्खू धम्मो कित्ती तहा सुयं॥ [१५] जैसे शंख में रखा हुआ दूध-अपने और अपने आधार के गुणों के कारण दोनों प्रकार से सुशोभित होता है (अर्थात् वह अकलुषित और निर्विकार रहता है), उसी प्रकार बहुश्रुत भिक्षु में धर्म, कीर्ति और श्रुत (शास्त्रज्ञान) भी दोनों ओर से (अपने और अपने आधार के गुणों से) सुशोभित होते हैं (-निर्मल एवं निर्विकार रहते हैं)। १६. जहा से कम्बोयाणं आइण्णे कन्थए सिया। आसे जवेण पवरे एवं हवइ बहुस्सुए॥ [१६] जिस प्रकार कम्बोजदेश में उत्पन्न अश्वों में कन्थक अश्व (शीलादि गुणों से) आकीर्ण (अर्थात् जातिमान्) और वेग (स्फूर्ति) में श्रेष्ठ होता है, इसी प्रकार बहुश्रुत साधक भी (श्रुतशीलादि) गुणों तथा (जाति और स्फूर्ति वाले) गुणों से श्रेष्ठ होता है। १७. जहाऽऽइण्णसमारूढे सूरे दढपरक्कमे। __ उभओ नन्दिघोसेणं एवं हवइ बहुस्सुए॥ [१७] जैसे आकीर्ण (जातिमान्) अश्व पर आरूढ दृढ पराक्रमी-शूरवीर योद्धा दोनों ओर से (अगलबगल में या आगे-पीछे) होने वाले नान्दीघोष (विजयवाद्यों या जयकारों) से सुशोभित होता है, वैसे ही बहुश्रुत भी (स्वाध्याय के मांगलिक स्वरों से) सुशोभित होता है। १८. जहा करेणपरिकिण्णे कुंजरे सट्ठिहायणे। बलवन्ते अप्पडिहए एवं हवइ बहुस्सुए॥ [१८] जिस प्रकार हथिनियों से घिरा हुआ साठ वर्ष का बलिष्ठ हाथी किसी से पराजित नहीं होता, वैसे ही बहुश्रुत साधक (औत्पत्तिकी आदि बुद्धिरूपी हथिनियों से तथा विविध विद्याओं से युक्त होकर) १. (क) बृहवृत्ति, पत्र ३४७ (ख) उत्तरा. चूर्णि, पृ. १९७-१९८
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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